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(लेखक– श्री जगन्नाथ प्रसाद जी मिश्र, बी.ए., बी.एल.)
मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। भव-बन्धन से विमुक्त हो जाना, जीवात्मा का परमात्मा की सत्त में विलीन हो जाना, आत्मतत्व का परमात्म तत्व के साथ अभेद हो जाना तथा हृदय के अन्तस्तल में ‘वासुदेव: सर्वमिति’, ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’इत्यादि त्रिकालावाधित सिद्धान्तवादियों की दिव्य ज्योति का समुद्भासित हो उठना ही मोक्ष है, यही परम पुरुषार्थ है। इस अवस्था को ही ब्रह्मीस्थिति या सिद्धावस्था कहते हैं और इसकी प्राप्ति ही इस संसार में मनुष्य का परम साध्य या अन्तिम ध्येय है। इस ब्राह्मी स्थिति की प्राप्ति के लिये कर्म, ज्ञान और भक्ति ये तीन मार्ग विवक्षित हैं और इन तीन मार्गों का आश्रय लेकर ही हमारे देश के मुमुक्षुओं ने मोक्षसाधन किया है, ब्रह्मानन्द सागर का निरवच्छिन्न रसपान किया है। यद्यपि मोक्ष साधन के लिये उपर्युक्त तीनों ही मार्ग श्रेयस्कर हैं फिर भी सर्व साधारणजन के कल्याण के लिये व्यक्त सगुण ब्रह्म के स्वरूप का प्रेमपूर्वक अहर्निश चिन्तन करना, अपनी वृत्ति को तदाकार बना लेना सबसे बढकर सहज उपाय माना गया है। यह साधन भी अन्य साधनों के समान ही अनादिकाल से हमारे देश में प्रचलित है और इसे ही उपासना या भक्ति मार्ग से शास्त्रों में अभिहित किया गया है। देहधारी मनुष्यों की स्वाभाविक मनोवृत्ति ही कुछ ऐसी होती है कि वह किसी वस्तु के स्वरूप का ज्ञान होने के लिये उसके नाम, रूप, रंग आदि इन्द्रियगोचर आधार को ढूँढती है।
इस प्रकार का कोई आधार मन के सामने रखकर उस पर चित्त स्थिर करना, ध्यान को एकाग्र करना जितना सहज एवं सुलभ है उतना किसी अव्यक्त, निर्गुण, निराधार वस्तु पर चित्त को स्थिर करके अपनी मनोवृत्ति को तदाकार एवं तद्रूप करना सहज एवं सुसाध्य नहीं हो सकता। व्यक्त-उपासना के इसी मार्ग का प्रतिपादन नारद, शाण्डिल्य आदि ऋषियों ने अपने ग्रन्थों में किया है और भागवत-धर्म के नाम से इसका विशद विवेचन श्रीमद्भावगत जैसे बृहत ग्रन्थ में किया गया है। ज्ञानीशिरोमणि, अद्वैतवाद के आचार्य श्रीशंकराचार्य ने भी मोक्षप्राप्ति के समस्त साधनों में भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ माना है– ‘मोक्षकरणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी’। भगवान के लीला निकेतन इस भारतवर्ष में जिस समय श्रीकृष्ण का ईश्वरावतार रूप में प्रादुर्भाव हुआ था उस समय इस देश के निवासी द्रुतगति से हीनावस्था की ओर अग्रसर हो रहे थे। दुर्वृत्त, दु:शील एवं धर्म विमुख लोगों का प्राबल्य बढ रहा था। पाप, अनाचार एवं दुष्कर्म की नि:सीम वृद्धि हो रही थी। ज्ञान एवं वैराग्य के नाम पर यहाँ की जनता में तामस भाव जनित मोह, अज्ञान, आलस्य एवं जड़ता का प्रचार बढ़ रहा था।
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