श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और भागवत–धर्म
ज्ञानकाण्ड के सच्चे उपासकों, निवृत्तिपथ के पथिकों एवं वीतराग ब्रह्मजिज्ञासुओं की संख्या तो उस समय भी परिमित ही थी, हां, इनके स्थान पर वेदान्त-तन्द्रालस, कर्मोद्यमहीन, निश्चेष्ट एवं अकर्मण्य मनुष्यों की प्रधानता खूब हो चली थी। जो लोग कोरे कर्मकाण्डी एवं ज्ञानी समझे जाते थे उनके आचरण में ऐसी कोई आकर्षक वस्तु नहीं थी जिससे सर्वसाधारण जन उस ओर आप ही आप आकृष्ट होकर मुक्तिमार्ग के साधक बनने की चेष्टा करें। इसके सिवा ज्ञान का यह दुर्गम मार्ग, मोक्ष-प्राप्ति का यह दुष्कर साधन उच्च जाति के विद्वानों और सो भी खासकर पुरुषों के लिये ही गम्य एवं प्राप्य था। शेष इतर लोगों के लिये ईश्वर-प्राप्ति का यह द्वार सर्वथा अवरुद्ध था। ऐसे समय में भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अवतीर्ण होकर भक्तिपुरस्सर कर्मयोग का जो महामन्त्र उद्घोषित किया उससे केवल अर्जुन का ही नहीं प्रत्युत समग्र देश की आत्मा में चैतन्य का संचार हो आया और एक बार पुन: इस देश की पुण्यभूमि भक्ति, ज्ञान एवं कर्म की त्रिवेणी से परिप्लावित होकर सरसित हो उठी। भगवान श्रीकृष्ण इस तथ्य से भलीभाँति अवगत थे कि कोरे कर्मकाण्ड एवं ज्ञानकाण्ड के वितण्डावाद में पड़कर कुछ लोग तो सिर्फ यज्ञयागजनित स्वर्ग फल में ही आसक्त हो रहे थे और शेष लोग ज्ञान के नाम पर बड़े–बड़े तत्व की कोरी बातें छांटा करते थे, यद्यपि उनका हृदय भक्ति रस विहीन होने के कारण सर्वथा शुष्क एवं नीरस बन गया था। इसके सिवा अव्यक्त उपासना का मार्ग दुर्गम एवं दुरुह होने के कारण सर्व साधारण के लिये ईश्वर प्राप्ति का कोई दूसरा सुलभ एवं सहजगम्य मार्ग उपलब्ध नहीं था। भगवद्गीता में भगवान ने कहा है– क्लेशोअधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । अर्थात अव्यक्त ब्रह्म में चित्त को एकाग्र करने वाले को बहुत कष्ट झेलना पड़ता है। देहधारियों के लिये अव्यक्त गति को पाना कष्टकर है। इसलिये जरूरत थी इस बात की कि भगवान श्रीकृष्ण जैसे कोई अवतारी महापुरुष किसी ऐसे सार्वभौम एवं सार्वजनीन धर्म तत्व की व्याख्या करें जिससे बड़े बड़े ज्ञानी, पण्डित, महात्मा से लेकर साधारण मूर्ख, आबाल-वृद्ध-वनिता, आपामरजन उद्बुद्ध होकर आत्म कल्याणार्थ भगवत प्राप्ति की चेष्टा में अग्रसर हों। यही एक काम महान कार्य था जिसके सम्पादन के लिये भगवान को इस लीलाभूमि में अवतार ग्रहण करना पथा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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