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दूरि खेलन जनि जाहु लला मेरे, बन मैं आए हाऊ!
तब हँसि बोले कान्हर, मैया, कौन पठाए हाऊ?
अब डरपत सुनि-सुनि ये बातैं, कहत हँसत बलदाऊ।
सप्त रसातल सेषासन रहे, तब की सुरति भुलाऊ।।
चारि बेद ले गयौ संखासुर, जल मैं रह्यौ लुकाऊ।
मीन-रूप धरि के जब मारौ, तबहि रहे कहँ हाऊ?
मथि समुद्र सुर-असुरनि कैं हित, मंदर जलधि धसाऊ।
कमठ-रूप धरि धरौ पीठि पर, तहाँ न देखे हाऊ!
जब हिरनाच्छ जुद्ध अभिलाष्यौ, मन मैं अति गरबाऊ।
धरि बाराह-रूप सो मारौ, लै छिति दंत अगाऊ।।
बिकट-रूप अवतार धरौं जब, सो प्रहलाद बचाऊ।
हिरनकसिप बपु नखनि बिदारौ, तहाँ न देखे हाऊ!
बामन-रूप धरौ बलि छलि कै, तीनि परग बसुधाऊ।
स्त्रम जल ब्रह्म-कमंडल राख्यौ, दरसि चरन परसाऊ।।
मारौ मुनि बिनहीं अपराधहि, कामधेनु लै हाऊ।
इकइस बार निछत्र करी छिति, तहाँ न देखे हाऊ!
राम-रूप रावन जब मारौ, दस-सिर बीस-भुजाऊ।
लंक जराइ छार जब कीनी, तहाँ न देखे हाऊ!
भक्त हेत अवतार धरे, सब असुरनि मारि बहाऊ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाऊ।।