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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री(77) (गोपिका माता यशोदाजी से कहती है-) ‘व्रजरानी! मैं तो तुम्हारे लाल पर मोहित हो गयी हूँ। तुम तनिक अत्यन्त समीप आकर (इसके) सुन्दर बड़े-बड़े नेत्रों को देखो तो। इसके चंचल नेत्र हैं, (मुखपर तुम्हारे) अंचल के वस्त की झलक शोभा दे रही है और (मुख के) चारों ओर अलकें लटक रही हैं, मानो सेवार में उलझे कमल पर दो भ्रमर इधर-उधर घूम रहे हों। मोती, मूँगा, नीलम और पिरोजा की मणियों से जटित लटकन ललाट पर लटक रही है, मानो शुक्र, मंगल, शनि और बृहस्पति चन्द्रमा के ऊपर एकत्र होकर शोभा दे रहे हों। सखी! सुन्दर मदनगोपाल की उपमा का वर्णन हीं किया जाता।’ सूरदासजी कहते हैं कि व्रज की स्त्रियाँ श्यामसुन्दर के ऊपर अपना तन, मन, धन न्योछावर किये देती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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