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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल(107) (श्रीयशोदाजी किसी गोपी से कहती हैं-) ‘सखी! आज सबेरे मैं दही मथने के लिये आतुरतापूर्वक उठी और दही से मटके को भरकर मणिमय खम्भे के पास रखकर हाथ में मैंने मथानी की रस्सी पकड़ी। दही मथने का शब्द सुनकर उसी समय श्याम हँसता हुआ मेरे पास दौड़ आया। अपने नेत्रों का चंचल नृत्य दिखलाकर (चपल नेत्रों से देखकर) तथा बाल-विनोद के अत्यन्त आनन्द से उसने मुझे मोहित कर लिय। उस चंचल ने अपने देखने तथा चलने (ललित गति) से मेरे चित्त को हरण कर लिया, चित्त लगाकर (एकाग्र होकर) मैं उसे देखती रही। (मणि-स्तम्भ में) अपना प्रतिबिम्ब देखकर वह मन-ही-मन पुलकित हो रहा था, उसके सभी अंग बड़े सुवावने लगते थे। मक्खन के गोले को दो भाग करके दोनों हाथों पर रखकर एक साथ दोनों हाथों से मुँह में डालते हुए मुसकराजा जाता था, सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी की शिशु-लीला का सुख हृदय में समाता नहीं (इसी से मैया उसका वर्णन सखी से कर रही हैं)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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