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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग रामकली(31) श्रीनन्दजी आनन्दित होकर व्रजरानी को पुकार रहे हैं-‘दही का मटका एक ओर दख दो। झटपट आकर पुत्र को मुख देखो।’ नेकिन यशोदाजी मथानी लिये दधि-मन्थन कर रही हैं, धर में (दही मथने के) घरघराहट का शब्द हो रहा है, स्थान-स्थानपर चहल-पहल हो रही है, इसलिये व्रजरानी श्रीनन्दजी की पुकार कानों से सुन नहीं पातीं। लेकिन जब उन्होंने पुकार सुनी तो यह समझकर कि (कन्हाई पलने से) गिर पड़ा है, झपटकर दौड़ पड़ीं; किंतु श्रीनन्दजी का हँसी से खिला मुख देखकर उन्हें धैर्य हुआ और हृदय की धड़कन रुकी। (पास आकर) श्यामसुन्दर को उलटे पड़े देख वहाँ छबि की लहर बढ़ गयी। सूरदासजी कहते हैं-प्रभु (सीधे होने के लिये) कभी हाथों को पलँग पर टेक रहे थे और कभी पाटीपर टेक रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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