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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग ललित(123) (माता यशोदा किसी गोपी से कहती हैं-) ‘सखी! मेरी यह सुन्दर बात सुनो! मैं मोहन को जगा नहीं पाती हूँ और मेरा यह कन्हाई अपनी समझ से अभी रात्रि ही मान रहा है। जब-जब मैं उसके पास जाती हूँ तब-तब मैं लोभ (स्नेह) के वश ठिठककर रह जाती हूँ, उसके मुख की छटा देखते ही शरीर की दशा भी भूज जाती हूँ, खड़ी-खड़ी मन में विचार करती हूँ, बोलने का बहुत प्रयत्न करती हूँ; किंतु नेत्रों को तो समझदारी आती नहीं (सोते हुए श्याम की छबि) देखते हुए उनकी रुचि बढ़ती ही जाती है।’ सूरदासजी कहते हैं कि मैया यशोदा को अपने लाल कमलमुख इस प्रकार प्रिय लगता है, वह है ही आनन्दराशि, उसका वर्णन भला किससे हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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