- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 69 में विराट और उत्तरकुमार की विजय के विषय में बातचीत का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
उत्तर का संवाद
उत्तर ने कहा- पिताजी! मैंने गौओं को नहीं जीता है और न मैंने शत्रुओं पर ही विजय पायी है। यह सब कार्य तो किसी देव कुमार ने किया है। मैं तो डरकर भागा जा रहा था; किंतु वज्र के समान सुदृढ़ शरीर वाले उस तरुण देव पुत्र ने मुझे लौटाया और वह स्वयं ही रथ के पिछले भाग में रथी बनकर बैठ गया। उसी ने उन गौओं को जीता है और कौरवों को भी परास्त किया है। पिता जी! यह सब उसी वीर का कर्म है। मैंने कुछ नहीं किया है। उसी ने कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण, भीष्म और दुर्योधन- इन छहों महारथियों को अपने बाणों से मार कर युद्ध से भगा दिया। वहाँ जैसे यूथपति गजराज अपने झुंड के हाथियों सहित भागा जाता हो, उसी प्रकार दुर्योधन ओर विकर्ण आदि राजपुत्र भयभीत होकर भागने लगे; तब उन महाबली देवपुत्र ने दुर्योधन से कहा-
धृतराष्ट्र कुमार! अब हस्तिनापुर में तेरी जीवन रक्षा का कोइ उपाय मुझे नहीं दिखायी देता; अतः देश- देशान्तरों में घूमकर अपनी जान बचा। ‘राजन! भागने से तू नहीं बच सकता। युद्ध मे मन लगा। जीत लेगा, तो पृथ्वी का श्राज्य भोगेगा अथवा मारे जाने पर तुझे स्वर्ग मिलेगा’। महाराज! इतना सुनना था कि नरश्रेष्ठ दुर्योधन साँप की भाँति फुँफकारता हुआ रथ के द्वारा लौट आया और मन्त्रियों से झिारकर उस देवपुत्र पर वज्र सरीखे बाणों की वर्षा करने लगा। मारिष! उस समय उसे देखकर मेरे तो रोंगट खड़े हो गये ओर जाँघें काँपने लगी; किंतु उस देवपुत्र ने अपने बाणों द्वारा सिंह के समान पराक्रमी दुर्योधन और उसकी सेना को संतप्त कर दिया। सिंह के समान सुदृढ़ शरीर वाले उस तरुण वीर ने रथारोहियों की सेना को छिन्न-भिन्न करके हँसते-हँसते उन कौरवों को भी धराशायी कर दिया, जिससे उनके कपड़े उतार लिये गये। जैसे मदोन्मत्त सिंह वन में विचरने वाले मृगों को परास्त करता है, उसी प्रकार उस वीर देवपुत्र ने अकेले ही उन छः महारथियों को हराया है।
विराट का संवाद
विराट ने पूछा- बेटा! वह महायशस्वी महाबाहु वीर देव पुत्र कहाँ है, जिसने युद्ध में कौरवों द्वारा काबू में की हुई मेरी गौओं को जीता है? जिस देवपुत्र ने तुम्हें और मेरी गौओं को भी बचाया है, मैं उस महापराक्रमी वीर को देखाना और उसका सत्कार करना चाहता हूँ।
उत्तर ने कहा- पिता जी! वह महाबली देवपुत्र वहीं अन्तर्धान हो गया; किंतु मेरा विश्वास है कि वह कल या परसों यहाँ फिर प्रकट होगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार संकेत पूर्वक बताने पर भी सेनाओं के स्वामी राजा विराट नपुंसक वेश में छिपकर वहीं रहने वाले पाण्डु नन्दन अर्जुन को पहचान न सके। तदनन्तर महामना विराट की आज्ञा से बृहन्नला रूपी अर्जुन ने स्वयं विराट कन्या उत्तरा को वे सब कपड़े, जो महारथियों के शरीर से उतारे थे, दे दिये। भामिनी उत्तरा उन भाँति-भाँति के नवीन एवं बहुमूल्य वस्त्रों को लेकर बहुत प्रसन्न हुई। जनमेजय! कुन्ती नन्दन अर्जुन ने महामना उत्तर के साथ राजा युधिष्ठिर को प्रकट करेने के विषय में सलाह की और क्या क्या करना चाहिये, इन सब बातों का निश्चय कर लिया। नरश्रेष्ठ! तदनन्तर उन्होंने उसी निश्चय के अनुसार सब कार्य ठीक - ठीक किया। भरतकुल शिरोमणि पाण्डव मत्स्य नरेश के पुत्र उत्तर के साथ वह सब व्यवस्था करके बड़े प्रसन्न हुए।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| नकुल का विराट के अश्वों की देखरेख में नियुक्त होना
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| द्रोणाचार्य की सम्मति
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| अर्जुन और भीष्म का अद्भुत युद्ध
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