- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 70 में अर्जुन का विराट को महाराज युधिष्ठिर का परिचय देने का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
पाण्डवों का श्वेत वस्त्र धारण करना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर नियत समय तक अपनी प्रतिज्ञा पालन करके अग्नि के समान तेजस्वी पाँचों भाई महारथी पाण्डव तीसरे दिन स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण कर समस्त राजोचित आभूषणों से विभूषित हो राज सभा में क्षर पर सिथत मदोन्मत्त गजराजों की भाँति सुशोभित होने लगे। वे राजा युधिष्ठिर को आगे करके विराट की सभा में गये और राजाओं के लिये रक्खे हुए सिंहासनों पर बैठे। उस समय वे भिन्न-भिन्न यज्ञ वेदियों पर प्रज्वलित अग्नियों के समान प्रकाशित हो रहे थे। पाण्डवों के वहाँ बैठ जाने पर राजा विराट अपने समस्त राजकाज करने के लिये सभा में आये।
विराट का संवाद
वहा प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी श्री सम्पन्न पाण्डवों को देखकर पृथ्वीपति विराट ने दो घड़ी तक मन ही मन कुछ विचार किया। फिर वे कुपित होकर देवता के समान स्थित मरुद्गणों से घिरे हुए देवराज इन्द्र के तुल्य सुशोभित कंक से बोले- ‘कंक! तुम्हें तो मैंने पासा फेंकने वाला समभासद बनाया था। आज बन ठन कर राज सिंहासन पर कैसे बैठ गये?’
अर्जुन का विराट को महाराज युधिष्ठिर का परिचय देना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! मोनो परिहास करने के लिये कहा गया हो, ऐसा विराट का यह वचन सुनकर अर्जुन मुसकराते हुए इस प्रकार बोले।
अर्जुन ने कहा- राजन! आपके राजासन की तो बात ही क्या है, ये तो इन्द्र के भी आधे सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हैं। ये ब्राह्मणभक्त, शास्त्रों के विद्वान, त्यागी, यज्ञशील तथा दृढ़ता के साथ अपने व्रत का पालन करने वाले हैं। ये मूर्तिमान धर्म हैं तथा पराक्रमी पुरुषों में रेष्ठ हैं। इस जगत में ये सबसे बढ़कर बुद्धिमान और तपस्या के परम आश्रय हैं। ये नाना प्रकार के ऐसे अस्त्रों को जानते हैं, जिन्हें इस चराचर त्रिलोकी में दूसरा मनुष्य न तो जानता है और न कभी जान सकेगा। जिन अस्त्रों को देवता, असुर, मनुष्य, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर और बड़े बड़े नाग भी नहीं जानते, उन सबका इन्हें ज्ञान है। ये दीर्घदर्शी, महातेजस्वी तथा नगर और देश के लोगों को अत्यन्त प्रिय हैं। ये पाण्डवों में अतिरथी वीर हैं एवं सदा यज्ञ और धर्म के अनुष्ठान में संलग्न तथा मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले हैं। ये महर्षियों के समान हैं, राजर्षि हैं और समस्त लोकों में विख्यात हैं। बलवान, धैर्यवान, चतुर, सत्यवादी और जितेन्द्रिय हैं। धन और संग्रह की दृष्टि से ये इन्द्र और कुबेर के समान हैं। जैसे महातेजस्वी मनु समस्त लोकों के रक्षक हैं, उसी प्रकार ये महातेजस्वी नरेश भी प्रजाजनों पर अनुग्रह करने वाले हैं। ये ही कुरुवंश में सर्वश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर हैं। उदय काल के सूर्य की शान्त प्रभा के समान इनकी सुख दायिनी कीर्ति समस्त संसार में फैली हुई है। जैसे सूर्योदय होने पर सूर्य के तेज के पश्चात् उनकी किरणें समसत दिशाओं में फैल जाती हैं, उसी प्रकार इनके सुयश के साथ-साथ उसकी सुधाधवल किरणें समस्त दिशाओं में छा रही हैं।
राजन! ये महाराज जब कुरुदेश में रहते थे, उस समय इनके पीछे दस हजार वेगवान हाथी चला करते थे। इसी प्रकार अचछे घोड़ों से जुते हुए सवर्णमाला मण्डित तीस हजार रथ भी उस समय इनका अनुसरण करते थे। जैसे महर्षिगण इन्द्र की स्तुति करते हैं, उसी प्रकार पहले विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण किये आठ सौ सूत और मागध इनके गुण गाते थे। राजन! जैसे देवगण धनाध्यक्ष कुबेर का दरबार किया करते हैं, वैसे ही सब राजा और कौरव किंकरों की भाँति इनकी नित्य उपासना करते थे। इन महाभाग नरेश ने इस देश के सब राजाओं को वैश्यों की भाँति स्ववश ( अपने अधीन ) और विवश करके कर देने वाला बना दिया था।[2] अत्यन्त उत्तम व्रत का पालन करने वाले इन महाराज के यहाँ प्रतिदिन अट्ठासी हजार महाबुद्धिमान स्नातकों की जीविका चलती थी। ये बेढ़े, अनाथ, पंगु और अंधे मनुष्यों को भी स्नेह पूर्वक पालन करते थे। ये नरेश अपनी प्रजा की धर्म पूर्वक पुत्र की भाँति रक्षा करते थे। ये भूपाल धर्म और इन्द्रिय संयम में ततपर तथा क्रोध को काबू में लिये दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। ये बड़े कृपालु, ब्राह्मण भक्त और सत्यवक्ता हैं। इनके प्रताप से दुर्योधन शक्तिशाली होकर भी कर्ण, शकुनि तथा अपने गणों के साथ शीघ्र ही संतप्त होने वाला है। नरेश्वर! इनके सद्गुणों की गणना नहीं की जा सकती। ये पाण्डु नन्दन नित्य धर्म परायण तथा दयालु स्वभाव के हैं। राजन! समस्त राजाओं के शिरोमणि पाण्डु नन्दन महाराज युधिष्ठिर इस प्रकार सर्वोत्तम गुणों से युक्त होकर भी राजोचित आसन के अणिकारी क्यों नहीं हैं?[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 70 श्लोक 1-14
- ↑ अर्थात सब राजा इन्हें कर दिया करते थे।
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 70 श्लोक 15-28
संबंधित लेख
महाभारत विराट पर्व में उल्लेखित कथाएँ
पांडवप्रवेश पर्व
विराटनगर में अज्ञातवास करने हेतु पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| अज्ञातवास हेतु युधिष्ठिर द्वारा अपने भावी कार्यक्रम का दिग्दर्शन
| भीमसेन और अर्जुन द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने अनुकूल कार्यों का वर्णन
| नकुल, सहदेव और द्रौपदी द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने कर्तव्यों का दिग्दर्शन
| धौम्य द्वारा पांडवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताना
| पांडवों का श्मशान में शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखना
| युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति
| युधिष्ठिर का राजसभा में राजा विराट से मिलना
| युधिष्ठिर का विराट के यहाँ निवास पाना
| भीमसेन का विराट की सभा में प्रवेश और राजा द्वारा उनको आश्वासन
| द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में रानी सुदेष्णा से वार्तालाप
| द्रौपदी का रानी सुदेष्णा के यहाँ निवास पाना
| सहदेव की विराट के यहाँ गौशाला में नियुक्ति
| अर्जुन की विराट के यहाँ नृत्य प्रशिक्षक के पद पर नियुक्ति
| नकुल का विराट के अश्वों की देखरेख में नियुक्त होना
समयपालन पर्व
भीमसेन द्वारा जीमूत नामक मल्ल का वध
कीचकवध पर्व
कीचक की द्रौपदी पर आसक्ति और प्रणय निवेदन
| द्रौपदी द्वारा कीचक को फटकारना
| सुदेष्णा का द्रौपदी को कीचक के यहाँ भेजना
| कीचक द्वारा द्रौपदी का अपमान
| द्रौपदी का भीमसेन के समीप जाना
| द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख प्रकट करना
| द्रौपदी का भीमसेन के सम्मुख विलाप
| द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख निवेदन करना
| भीमसेन और द्रौपदी का संवाद
| भीमसेन और कीचक का युद्ध
| भीमसेन द्वारा कीचक का वध
| उपकीचकों का सैरन्ध्री को बाँधकर श्मशानभूमि में ले जाना
| भीमसेन द्वारा उपकीचकों का वध
| द्रौपदी का विराट नगर में लौटकर आना
| द्रौपदी का बृहन्नला और सुदेष्णा से वार्तालाप
गोहरण पर्व
दुर्योधन को उसके गुप्तचरों द्वारा कीचकवध का वृत्तान्त सुनाना
| दुर्योधन का सभासदों से पांडवों का पता लगाने हेतु परामर्श
| द्रोणाचार्य की सम्मति
| युधिष्ठिर की महिमा कहते हुए भीष्म की पांडव अन्वेषण के विषय में सम्मति
| कृपाचार्य की सम्मति और दुर्योधन का निश्चय
| सुशर्मा का कौरवों के लिए प्रस्ताव
| त्रिगर्तों और कौरवों का मत्स्यदेश पर धावा
| पांडवों सहित विराट की सेना का युद्ध हेतु प्रस्थान
| मत्स्य तथा त्रिगर्त देश की सेनाओं का युद्ध
| सुशर्मा द्वारा विराट को बन्दी बनाना
| पांडवों द्वारा विराट को सुशर्मा से छुड़ाना
| युधिष्ठिर का अनुग्रह करके सुशर्मा को मुक्त करना
| विराट द्वारा पांडवों का सम्मान
| विराट नगर में राजा विराट की विजय घोषणा
| कौरवों द्वारा विराट की गौओं का अपहरण
| गोपाध्यक्ष का उत्तरकुमार को युद्ध हेतु उत्साह दिलाना
| उत्तर का अपने लिए सारथि ढूँढने का प्रस्ताव
| द्रौपदी द्वारा उत्तर से बृहन्नला को सारथि बनाने का सुझाव
| बृहन्नला के साथ उत्तरकुमार का रणभूमि को प्रस्थान
| कौरव सेना को देखकर उत्तरकुमार का भय
| अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन देकर रथ पर चढ़ाना
| द्रोणाचार्य द्वारा अर्जुन के अलौकिक पराक्रम की प्रशंसा
| अर्जुन का उत्तर को शमीवृक्ष से अस्त्र उतारने का आदेश
| उत्तर का शमीवृक्ष से पांडवों के दिव्य धनुष आदि उतारना
| उत्तर का बृहन्नला से पांडवों के अस्त्र-शस्त्र के विषय में प्रश्न करना
| बृहन्नला द्वारा उत्तर को पांडवों के आयुधों का परिचय कराना
| अर्जुन का उत्तरकुमार को अपना और अपने भाइयों का यथार्थ परिचय देना
| अर्जुन द्वारा युद्ध की तैयारी तथा अस्त्र-शस्त्रों का स्मरण
| अर्जुन द्वारा उत्तरकुमार के भय का निवारण
| अर्जुन को ध्वज की प्राप्ति तथा उनके द्वारा शंखनाद
| द्रोणाचार्य का कौरवों से उत्पात-सूचक अपशकुनों का वर्णन
| दुर्योधन द्वारा युद्ध का निश्चय
| कर्ण की उक्ति
| कर्ण की आत्मप्रंशसापूर्ण अहंकारोक्ति
| कृपाचार्य का कर्ण को फटकारना और युद्ध हेतु अपना विचार बताना
| अश्वत्थामा के उद्गार
| भीष्म द्वारा सेना में शान्ति और एकता बनाये रखने की चेष्टा
| द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन की रक्षा के प्रयत्न
| पितामह भीष्म की सम्मति
| अर्जुन का दुर्योधन की सेना पर आक्रमण और गौओं को लौटा लाना
| अर्जुन का कर्ण पर आक्रमण और विकर्ण की पराजय
| अर्जुन द्वारा शत्रुंतप और संग्रामजित का वध
| कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण का पलायन
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना का संहार
| उत्तर का अर्जुन के रथ को कृपाचार्य के पास लेना
| अर्जुन और कृपाचार्य का युद्ध देखने के लिए देवताओं का आगमन
| कृपाचार्य और अर्जुन का युद्ध
| कौरव सैनिकों द्वारा कृपाचार्य को युद्ध से हटा ले जाना
| अर्जुन का द्रोणाचार्य के साथ युद्ध
| द्रोणाचार्य का युद्ध से पलायन
| अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ युद्ध
| अर्जुन और कर्ण का संवाद
| कर्ण का अर्जुन से हारकर भागना
| अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन
| अर्जुन से दु:शासन आदि की पराजय
| अर्जुन का सब योद्धाओं और महारथियों के साथ युद्ध
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना के महारथियों की पराजय
| अर्जुन और भीष्म का अद्भुत युद्ध
| अर्जुन के साथ युद्ध में भीष्म का मूर्च्छित होना
| अर्जुन और दुर्योधन का युद्ध
| दुर्योधन का विकर्ण आदि योद्धाओं सहित रणभूमि से भागना
| अर्जुन द्वारा समस्त कौरव दल की पराजय
| कौरवों का स्वदेश को प्रस्थान
| अर्जुन का विजयी होकर उत्तरकुमार के साथ राजधानी को प्रस्थान
| विराट की उत्तरकुमार के विषय में चिन्ता
| उत्तरकुमार का नगर में प्रवेश और प्रजा द्वारा उनका स्वागत
| विराट द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार और क्षमा-प्रार्थना
| विराट का उत्तरकुमार से युद्ध का समाचार पूछना
| विराट और उत्तरकुमार की विजय के विषय में बातचीत
| अर्जुन का विराट को महाराज युधिष्ठिर का परिचय देना
| विराट को अन्य पांडवों का परिचय प्राप्त होना
| विराट का युधिष्ठिर को राज्य समर्पण और अर्जुन-उत्तरा विवाह का प्रस्ताव
| अर्जुन द्वारा उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में ग्रहण करना
| अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह
| विराट पर्व श्रवण की महिमा
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज