सुदेष्णा का द्रौपदी को कीचक के यहाँ भेजना

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 15 में सुदेष्णा द्वारा द्रौपदी को कीचक के यहाँ भेजने का वर्णन हुआ है[1]-

कीचक एवं सुदेष्णा का संवाद

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! राजकुमारी द्रौपदी के द्वारा इस प्रकार ठुकरा दिये जाने पर कीचक असीम एवं भयंकर काम से विवश होकर अपनी बहिन सुदेष्णा से बोला- ‘केकयराजनन्दिनी! जिस उपाय से भी वह गजगामिनी सैरन्ध्री मेरे पास आवे और मुझे अंगीकार कर ले, वह करो। सुदेष्णे! तुम स्वयं ही ऊहापोह करके युक्ति से वह उचित उपाय ढूंढ निकालो, जिससे मुझे (मोह के वश हो) प्राणों का त्याग न करना पडत्रे’।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! इस प्रकार बारंबार विलाप करते हुए कीचक की बात सुनकर उस समय राजा विराट की मनस्विनी महारानी सुदेष्णा के मन में उसके प्रति दयाभाव प्रकट हो गया।

सुदेष्णा बोली- भाई! यह सुन्दरी सैरन्ध्री मेरी शरण में आयी है। इसे मैंने अभय दे रक्खा है। तुम्हारा कल्याण हो। यह बड़ी सदाचारिणी है। मैं इससे तुम्हारी मनोगत बात नहीं कह सकती।। इसे कोई भी दूसरा पुरुष मन से दूषित भाव लेकर नहीं छू सकता। सुनती हूँ, पाँच गन्धर्व इसकी रक्षा करते हैं और इसे सुख पहुँचाते हैं।इसने यह बात मुझसे उसी समय जबकि मेरी इससे पहले पहल भेंट हुई थी, बता दी थी। इसी प्रकार हाथी की सूँड के समान जाँघों वाली इस सुन्दरी ने मेरे निकट यह सत्य ही कहा है कि यदि किसी ने मेरा अपमान किया, तो मेरे महात्मा पति कुपित होकर उसके जीवन को ही नष्ट कर देंगे। राजा भी इसे यहाँ देचाकर मोहित हो गये थे, तब मैंने इसकी कही हुई सच्ची बातें बताकर उन्हें किसी प्रकार समझा बुझाकर शान्त किया। तब से वे भी सदा इसे देखकर मन-ही-मन इसका अभिनन्दन करते हैं। जीवन का विनाश करने वाले उन श्रेष्ठ गन्धर्वों के भय से महाराज कभी मन से भी इसका चिन्तन नहीं करते हैं। वे महात्मा गन्धर्व गरुड़ और वायु के समान तेजस्वी हैं। वे कुपित होने पर प्रलयकाल के सूर्यों की भाँति तीनों लोकों करे दग्ध कर सकते हैं। सैरन्ध्री ने स्वयं ही मुझसे उनके महान बल का परिचय दिया है। भ्रातृस्नेह के कारण मैंने तुमसे यह गोपनीय बात भी बता दी है। इसे ध्यान में रखने से तुम अत्यन्त दुःखदायिनी संकटपूर्ण स्थिति में नहीं पड़ोगे। गन्धर्वलोग बलवान हैं। वे तुम्हारे कुल और सम्पत्ति का भी नाश कर सकते हैं। इसलिये यदि तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं और यदि तुम मेरा भी प्रिय चाहते हो, तो इस सैरन्ध्री में मन न लगाओ। उसका चिन्तन छोड़ दो और उसके पास भी न जाओ।

वैशम्पायन जी कहते हैं - राजन! सुदेष्णा के ऐसा कहने पर दुष्टात्मा कीचक अपनी बहिन से बोला।

कीचक ने कहा- बहिन में सैकड़ों, सहस्रों तथा अयुत गन्धर्वों को अकेला ही मार गिराऊँगा, फिर पाँच की तो बात ही क्या है ?

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कीचक के ऐसा कहने पर सुदेष्णा शोक से अत्यन्त व्यथित हो उठी और मन-ही-मन कहने लगे- ‘अहो! यह महान् दुःख, महान संकट और महान पाप की बात हो रही है।’ इस कर्म के भावी परिणाम पर दृष्टिपात करके वह अत्यन्त दुःख से आतुर हो रोने लगी और मन-ही-मन बोली- ‘मेरा यह भाई तो ऊटपटाँग बातें बोलकर स्वयं ही पाताल अथवा बड़वानल के मुख में गिर रहा है’। (तत्पश्चात् वह कीचक को सुनाकर कहने लगी-) ‘मैं देखती हूँ; मेरे कारण मेरे सभी भाई और सुहृद नष्ट हो जायँगे। तू ऐसी अनुचित इचछा को अपने मन में स्थान दे रहा है; मैं इसके लिये क्या कर सकती हूँ ? अपनी भलाई किस बात में हैं, यह तू नहीं समझता है और केवल काम का ही गुलाम हो रहा है। ‘पापी! निश्चय ही मेरी आयु समाप्त हो गयी है, तभी तू इस प्रकार काम से मोहित हो रहा है। नराधम! तू मुझे ऐसे पापपूर्ण कार्य में लगा रहा है, जो कदापि करने योग्य नहीं है। ‘प्राचीनकाल के श्रेष्ठ एवं कुशल मनुष्यों ने यह ठीक ही कहा है कि कुल में एक मनुष्य पाप करता है ओर उसके कारण सभी जाति-भाई मारे जाते हैं। ‘तू यमराज के लोक में गया हुआ ही है, इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं रह गया है। तू अपने साथ इस समस्त निरपराध स्वजनों को भी मरवा डालेगा। ‘मेरे लिये सबसे महान दुःख की बात यह है कि में सारे परिणामों को समझ बूझकर भी भ्रातृ-स्नेह के कारण तेरी आज्ञा का पालन करूँगी। तू अपने कुल का संहार करके संतुष्ट हो ले’।

सुदेष्णा का द्रौपदी को कीचक के यहाँ भेजना

तदनन्तर सुदेष्णा ने अपने कार्य का विचार करके कीचक के मनोभाव पर ध्यान दिया और फिर उसे द्रौपदी की प्राप्ति कराने के लिये उचित उपाय का निश्चय करके उसने सूत से कहा- कीचक! तुम किसी पर्व या त्यौहार के दिन अपने घर में मदिरा तथा अन्न-भोजन की सामग्री तैयार कराओ। फिर मैं इस सैरन्ध्री को वहाँ से सुरा ले आने के बहाने तुम्हारे पास भेजूँगी। वहाँ भेजी हुई इस सेविका को एकान्त में, जहाँ कोइ विघ्न-बाघा न हो, अपनी इच्छा के अनुसार समझाना-बुझाना। सम्भव है, तुम्हारी सान्त्वना मिलने पर यह रमण करने के लिये उद्यत हो जाय’।

वैशम्पायन जी कहते हैं - राजन! बहिन के वचन से इस प्रकार आश्वासन मिलने पर कीचक उस समय वहाँ से चला गया और घर जाकर उसने यथासम्भव चतुर रसोइयों के द्वारा राजाओं के उपयोग में आने योग्य उत्तम एवं परिष्कृत मदिरा मँगवायी और भाँति-भाँति के अनेक विशिष्ट और साधारण भक्ष्य पदार्थ एवं परम उत्तम अन्न-पान की तैयारी करायी। उसकी व्यवस्था हो जाने पर कीचक ने सुदेष्णा को भोजन के लिये आमन्त्रित किया। मूढ़ात्मा कीचक कण्ठ में कालपाश से बँधे हुए पयाु की भाँति अपने निकट आयी हुई मृत्यु को नहीं जान पाता था। वह द्रौपदी को पाने के लिये उतावला हो रहा था।

कीचक बोला- सुदेष्णे! मैंने नाना प्रकार की मीठी मदिरा मँगा ली है और विविध प्रकार की रसोई भी तैयार कर ली है। अब तुम सैरन्ध्री से कह दो, जिससे वह मेरे घर में पधारे। किसी काम के बहाने उसे जल्दी मेरे यहाँ भेजो। मेरा प्रिय कार्य सिद्ध करने में शीघ्रता करो। मैं भगवान शंकर की शरण लेकर यह प्रार्थना करता हूँ कि प्रभो! मुझे सैरन्ध्री से मिला दो अथवा मृत्यु प्रदान करो।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! तब सुदेष्णा लंबी साँस खींचकर बोली- ‘तुम अपने घर लौट जाओ। मैं सैरन्ध्री को शीघ्र ही वहाँ से मदिरा ले आने के लिये आज्ञा देती हूँ’। उसके ऐसा कहने पर सैरन्ध्री का चिन्तन करता हुआ पापात्मा कीचक फिर तुरंत ही अपने घर को लौट गयो।। तब सुदेष्णा ने सैरन्ध्री को कीचक के घर जाने के लिये कहा।

सुदेष्णा ने कहा- सैरन्ध्री! उठो और कीचक के घर जाओ। कल्याणी! मुझे प्यास विशेष कष्ट दे रही है; अतः वहाँ से मेरे पीने योग्य रस ले आओ।

सैरन्ध्री ने कहा- राजकुमारी! मैं उसके घर नहीं जा सकती। महारानी! आप तो जानती ही हैं कि वह कैसा निर्लज्ज है। निर्दोष अंगोंवाली देवि! मैं आपके महल में अपने पतियों की दृष्टि में व्यभिचारिणी और स्वच्छाचारिणी होकर नहीं रहूँगी। भामिनी! देवि! पहले आपके इस राजभवन में प्रवेश करते समय मेंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे भी आप जानती ही हैं। कमनीय केशोंवाली सुन्दरी! मूर्ख कीचक तो काममद से उन्मत्त हो रहा है। वह मुझे देखते ही अपमानित कर बैठेगा। इसलिये मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। राजपुत्री! आपके अधीन तो और भी बहुत सी दासियाँ हैं; उन्हीं में से किसी दूसरी को भेज दीजिये। आपका कल्याण हो। मेरे जाने से कीचक मेरा अपमान करेगा।

सुदेष्णा बोली- शुभे! मैंने तुम्हें यहाँ से भेजा है, अतः वह कभी तुम्हें कष्ट नहीं देगा। यह कहकर सुदेष्णा ने द्रौपदी के हाथ में ढक्कन सहित एक सुवर्णमस पात्र दे दिया।[2]

द्रापदी मदिरा लाने के लिये उस पात्र को लेकर शंकित हो रोती हुई कीचक के घर की ओर चली और अपने सतीत्व की रक्षा के लिये मन-ही-मन भगवान सूर्य की शरण में गयी।

सैरन्ध्री ने कहा- भगवन! यदि मैं अपने पतियों के सिवा किसी दूसरे पुरुष को मन में नहीं लाती, तो इस सत्य के प्रभाव से कीचक अपने घर में आयी हुई मुझ अबला को अपने वश में न कर सके।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सब प्रकार के बल से रहित द्रौपदी दा घड़ी तक भगवान सूर्य की उपासना करती रही। तदनन्तर श्रीसूर्यदेव ने पतले कटिभागवाली द्रुपदकुमारी की सारी परिस्थिति समझ ली और उसकी रक्षा के लिये अदृश्य रूप से एक राक्षस को नियुक्त कर दिया। वह राक्षस किसी भी अवस्था में सती साध्वी द्रौपदी को वहाँ असहाय नहीं छोड़ता था।

डरी हुई हरिणी की भाँति भयभीत द्रौपदी को समीप आयी देख सूत कीचक आनन्द में भरकर खड़ा हो गया; मानो नदी के पास जाने वाला पथिक नौका पाकर प्रसन्न हो गया हो।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-4
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 15 श्लोक 5-16
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 15 श्लोक 17-21

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