- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 45 में अर्जुन द्वारा युद्ध की तैयारी तथा अस्त्र-शस्त्रों के स्मरण का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय सेअर्जुन द्वारा युद्ध की तैयारी तथा अस्त्र-शस्त्रों के स्मरण की कथा कही है।[1]
विषय सूची
अर्जुन द्वारा युद्ध की तैयारी
उत्तर बोला - वीरवर! आप सुन्दर रथ पर आरूढ़ हो मुझ सारथि के साथ किस सेना की ओर चलेंगे? आप जहाँ चलने के लिये आज्ञा देंगे, वहीं मैं आपके साथ चलूँगा। अर्जुन ने कहा - पुरुषसिंह! अब तुम्हें कोई भय नहीं रहा, यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। रण कर्म में कुशल वीर! मैं तुम्हारे सब शत्रुओं को अभी मार भगाता हूँ। महाबाहो! तुम स्वस्थ चित्त ( निश्चिन्त ) हो जाओ और इस संग्राम में मुझे शत्रुओं के साथ युद्ध तथा अत्यनत भयंकर पराक्रम करते देखो। मेरे इन सब तरकसों की शीघ्र रथ में बाँध दो और एक सुवर्ण भूषित खड्ग भी ले आगो।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! अर्जुन का यह कथन सुनकर उत्तर उतावला हो अर्जुन के सब आयुधों को लेकर शीघ्रता पूर्वक वृक्ष से उत्तर आया। अर्जुन बोले - मैं कौरवों से युद्ध करूँगा औश्र तुम्हारे पशुओं को जीत लूँगा। मुझसे सुरक्षित होकर रथ का यह ऊपरी भाग ही तुम्हारे लिये नगर हो जायगा। इस रथ के जो धुरी पहिये आदि अंग हैं, उनकी सुदृढ़ कल्पना ही नगर की गलियों के दोनों भागों में बने हुए गृहों का विस्तार है। मेरी दोनों भुजाएँ ही चाहरदीवारी और नगर द्वार हैं। इस रथ में जो त्रिदण्ड [2]तथा तूणीर आदि हैं, वे किसी को यहाँ तक फटकने नहीं देंगे। जैसे नगर में हाथी सवार, घुड़सवार तथा रथी इन त्रिविध सेनाओं रथी आयुधों के कारण उसके भीतर दूसरों का प्रवेश करना असम्भव होता है।
नगर में जैसे बहुत सी ध्वजा पताकाएँ फहराती हैं, उसी प्रकार इस रथ में भी फहरा रही हैं। धनुष की प्रत्यन्चा ही नगर में लगी हुई तोप की नली है, जिसका क्रोध पूर्वक उपयोग होता है और रथ के पहियों की घर्घराहट को ही नगर में बजने वाले नगाड़ों की आवाज समझो। जब मैं युद्ध भूमि में गाण्डीव धनुष लेकर रथ पर सवार होऊँगा, उस समय शत्रुओं की सेनाएँ मुझे जीत नहीं सकेंगी; अतः विराट नन्दन! तुम्हारा भय अब दूर हो जाना चाहिये। उत्तर ने कहा - अब मैं उनसे नहीं डरता; क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आप संग्राम भूमि में भगवान श्रीकृष्ण और साक्षात इन्द्र के समान स्थिर रहने वाले हैं। केवल इसी एक बात को सोचकर मैं ऐसे मोह में पड़ जाता हूँ कि बुद्धि अच्छी न होने के कारण किसी तरह भी किसी निश्चय तक नहीं पहुँच पाता।[1]
वह चिन्ता इस प्रकार है - आपका एक-एक अवयव तथा रूप सब प्रकार से उपयुक्त है। आप लक्षणों द्वारा भी अलौकिक सूचित हो रहे हैं। ऐसी दशा में भी किस कर्म के परिणाम से आपको यह नपुंसकता प्राप्त हुई है? मैं तो नपुंसक वेश में विचरने वाले आपको शूलपाणि भगवान शंकर का स्वरूप मानता हूँ अथवा गन्धर्वराज के समान या साक्षात देवराज इन्द्र समझता हूँ।
अर्जुन बोले- महाबाहो! उर्वशी के शाप से मुझे यह नपुंसक भाव प्राप्त हुआ है। पूर्व काल में मैं अपने बड़े भाई की आज्ञा से देवलोक में गया था। वहाँ सुधर्मा नामक सभा में मैंने उस समय उर्वशी अप्सरा को देखा। वह परम सुन्दर रूप धारण करके वज्रधारी इन्द्र के समीप नृत्य कर रही थी। मेरे वंश की मूल हेतु[3]होने के कारण होने के कारण मैं उसे अपलक नेत्रों से देखने लगा। तब वह रात में सोते समय रमण की इच्छा से मेरे पास आयी, परंतु मैंने उसे [4] उसका माता के समान सत्कार किया। तब उसने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया - ‘तुम नपुंसक हो जाओ।’ तब इन्द्र ने वह शाप सुनकर मुझसे कहा- ‘पार्थ! तुम नपुंसक होने से डरो मत। यह तुम्हारे लिये अज्ञातवास के समय उपकारक होगा।’ इस प्रकार देवराज इन्द्र ने मुझ पर अनुग्रह करके यह आश्वासन दिया और स्वर्गलोक से यहाँ भेजा। अलनघ! वही यह व्रत प्राप्त हुआ था, जिसको मैंने पूरा किया है। महाबाहो! मैं बड़े भाई की आज्ञा से इस वर्ष एक व्रत का पालन कर रहा था।
उस व्रत की जो दिनचर्या है, उसके अनुसार मैं नपुंसक बनकर रहा हूँ। मैं तुमसे यह सच्ची बात कह रहा हूँ वास्तव में मैं नपुंसक नहीं हूँ; भाई की आज्ञा के अधीन होकर धर्म के पालन में तत्पर रहा हूँ। राजकुमार! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि अब मेरा व्रत समाप्त हो गया है; अतः मैं नपुंसक भाव के कष्ट से भी मुक्त हो चुका हूँ। उत्तर ने कहा- नरश्रेष्ठ! आ मुझ पर आपने बड़ा अनुग्रह किया, जो मुझे सब बात बता दी। ऐसे लक्षणों वाले पुरुष नपुंसक नहीं होते, इस प्रकार जो मेरे मन में तर्क उठ रहा था, वह व्यर्थ नहीं था। अब तो मुझे आपकी सहायता मिल गयी है; अतः युद्ध भूमि में देवताओं का भी सामना कर सकता हूँ। मेरा सारा भय नष्ट हो गया। बताइये, अब मैं क्या करूँ? पुरुष प्रवर! मैंने गुरु से सारथ्य कर्म की शिक्षा प्राप्त की है; इसलिये आपके घाड़ों को, जो शत्रु के रथ का नाश करने वाले हैं, मैं काबू में रक्खूँगा।[5]
अर्जुन द्वारा अस्त्र-शस्त्रों का स्मरण
नरपुंगव! जैसे भगवान वासुदेव का सारथि दारुक और इन्द्र का सारथि मातलि है, उसी प्रकार मुझे भी आप सारथि के कार्य में पूर्ण शिक्षित मानिये। जो घोड़ा दाहिनी धुरी में जोता गया है तथा जिसके जाते समय लोग यह नहीं देख पाते कि उसने कब कहाँ पृथ्वी पर पैर रक्खा था या उठाया है, यह [6] सुग्रीव नामक घोड़े के समान है। और भार ढोने वालों में श्रेष्ठ जो यह सुन्दर अश्व बाँयीं धुरी का भार वहन करता है, उसे वेग में मेघ पुष्प नामक अश्व के समान मानता हूँ। यह जो सोने के बख्तर से सजा हुआ सुन्दर अश्व बाँयी ओर पिछला जुआ ढो रहा है, इसे वेग में मैं शैव्य नामक अश्व के समान अत्यन्त बलवान मानता हूँ। और यह जो दाहिने भाग का पिछला जुआ धारण करके खड़ा है, वह वेग में बलाहक ना वाले अश्व से भी अधिक समझा गया है। यह रथ आप जैसे धनुर्धर वीर को ही वहन करने योग्य है और मेरी राय में आ इसी रथ पर बैठकर युद्ध करने योग्य हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! तदनन्तर पराक्रमी अर्जुन ने हाथों से कड़े और चूडि़याँ उतार दीं और हथेलियों में सोने के बने हुए विचित्र कवच धारण कर लिये। फिा उन्होंने काले-काले घुंघराले केशों को श्वेत वस्त्र से बाँध दिया और पूर्व की ओर मुँह करके पवित्र एवं एकाग्रचित्त हो महाबाहु धनंजय ने उस श्रेष्ठ रथ पर सम्पूर्ण अस्त्रों का ध्यान किया।[7]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-11
- ↑ हरिस और उसके अगल - बगल की लगडि़याँ
- ↑ जननी
- ↑ प्रणाम करके उसकी इच्छा पूर्ति न करके
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 45 श्लोक 12-18
- ↑ भगवान श्रीकृष्ण के चार अश्वों में से
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 45 श्लोक 19-32
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