अर्जुन का द्रोणाचार्य के साथ युद्ध

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 58 में अर्जुन का द्रोणाचार्य के साथ युद्ध का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अर्जुन का द्रोणाचार्य के साथ युद्ध की कथा कही है।[1]

वैशम्पायन-जनमेजय संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब कृपाचार्य रणभूमि से बाहर हटा लिये गये, तब लाल घोड़ों वाले दुर्धर्ष वीर आचार्य द्रोण ने धनुष- बाण लेकर श्वेतवाहन अर्जुन पर धावा किया। सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ गुरुदेव को अपने निकट आते देख विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन उत्तर से इस प्रकार बोले।

अर्जुन ने कहा - सारथे! तुम्हारा कल्याण हो। जिस रथ की ध्वजा में ऊँचे डंडे के ऊपर पताका से विभूषित यह ऊँची सुवर्णमयी वेदी प्रकाशित हो रही है, वहाँ आचार्यद्रोण की सेना है। मुझे वहीं ले चलो। जिनके श्रेष्ठ रथ में जुते हुए सब प्रकार की शिक्षाओं में निपुण, चिकने, मूँगे के समान लाल रंग के, ताँबे से मुख वाले, सुन्दर तथा अच्छे ढेग से रथ का भार वहन करने वाले बड़े बड़े अश्व सुशोभित हो रहे हैं, वे महातेजस्वी दीर्घबाहु, बल एवं रूप से सम्पन्न तथा समसत संसार में विख्यात पराक्रमी प्रतापी वीर भरद्वाज नन्दन द्रोण हैं।

ये बुद्धि में शुक्राचार्य और नीति में बृहपति के समान हैं। मारिष[2]! इनमें चारों वेद, ब्रह्मचर्य, संहार - विधि सहित सम्पूर्ण दिव्यास्त्र और समसत धनुर्वेद सदा प्रतिष्ठित है। इन विप्र शिरोमणि में क्षमा, इन्द्रिय संयम, सत्य, कोमलता, सरलता तथा अन्य बहुत से सद्गुण नित्य विद्यमान हैं। अतः मैं इन्हीं महाभाग आचार्य के साथ इस समर भूमि में युद्ध करना चाहता हूँ। अतः उत्तर! रथ बढ़ाओ और मुझे शीघ्र उन आचार्य के समीप पहुँचा दो।

युद्ध का आरम्भ

वैशम्पायन जी कहते हैं - राजन! अर्जुन के इस प्रकार आदेश देने पर विराट नन्दन उत्तर ने सोने के आभूषणों से विभूषित उन अश्वों को आचार्य द्रोण के रथ की ओर हाँक दिया। महारथियों श्रेष्ठ पाण्डु नन्दन अर्जुन को बड़े वेग से अपनी ओर आते देख आचार्यद्रोण भी पार्थ की ओर आगे बढ़ आये, ठी उसी तरह जैसे एक उत्मत्त गजराज दूसरे मतवाले गजराज से भिड़ने के लिये जा रहा हो। तदनन्तर द्रोण ने सौ नगाड़ों के बराबर आवाज करने वाले अपने शंख को बजाया। उसे सुनकर सारी सेना में हलचल मच गयी, मानो समुद्र में ज्वार आ गया हो। रण भूमि में उन लाल रंग के सुन्दर घोड़ों को हंस के समान वर्ण वाले मन के सदृश वेगशाली श्वेत घोड़ों से मिला देख युद्ध करने के विषय में सब लोग आश्चर्य में पड़ गये।[1]

महाबलीद द्रोण और कुन्तीपुत्र अर्जुन दोनों महारथी बल वीर्य सम्पन्न, अजेय, अस्त्र विद्या के विशेषज्ञ और मनस्वी थे। युद्ध के सिरे पर वे दोनों आचार्य और शिष्य अपने अपने रथ पर बैठे हुए[3] परस्पर आलिंगन करने लगे। उन्हें इस अवस्था में देखकर भरत वंशियों की वह विशाल सेना बारंबार भय से काँपने लगी। तदनन्तर शत्रुवीरों का नाश करने वाले महारथी और महापराक्रमी कुन्ती पुत्र अर्जुन हर्षोल्लास में भर गये और आचार्य द्रोण के रथ से अपना रथ भिड़ाकर उन्हें प्रणाम करके हँसते हुए से शान्ति पूर्वक मधुर वाणी में यों बोले- ‘आचार्य! युद्ध में आप पर विजय पाना सर्वथा कठिन है। हम लोग अहुत वर्षों तक वन में रहकर कष्ट उठाते रहे हैं। अब शत्रुओं से बदला लेने की इच्छा से आये हैं; अतः आप हम लोगों पर क्रोध न करें। अनघ! मैं तो आप पर तभी प्रहार करूँगा, जब पहले आप मुझ पर प्रहार कर लेंगे। मेरा यही निश्चय है, अतः आप ही पहले मुझ पर प्रहार करें।’

तब आचार्य द्रोण ने अर्जुन पर इक्कीस बाण चलाये; किंतु पार्थ ने उन सबको अपने पास आने से पहले ही काट गिराया, मानो उनके हाथ इस कला में पूर्ण सुशिक्षित थे। तदनन्तर पराक्रमी द्रोण ने अपनी अस्त्र चलाने की फुर्ती दिखाते हुए अर्जुन के रथ पर सहस्रों बाणों की वृष्टि की। उनका आत्मबल असीम था। उन्होंने चाँदी के समान अंग वाले अर्जुन के श्वेत घोड़ों को भी शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सफेद चील की पाँख वाले बाणों से ढँक दिया। जान पड़ता था, आचार्य यह सब करके अर्जुन के क्रोध को उभाड़ना चाहते थे। इस प्रकार भरद्वाज नन्दन द्रोण और किरीटधारी अर्जुन में युद्ध छिड़ गया। वे दोनों समर भूमि में (एक दूसरे पर) समान रूप से बाणों की वर्षा करने लगे। दोनों की विख्यात पराक्रमी थे। वेग में दोनों ही वायु के समान थे। वे दोनों गुरु शिष्य दिव्यास्त्रों के महापण्डित और उत्तम तेज से सम्पन्न थे। परसपर बाणों की झड़ी लगाते हुए दोनों ने सब राजाओं को मोह में डाल दिया। तदनन्तर जो जो सैनिक वहाँ आये थे, वे एक दम से पर तीव्र गति से बाण वर्षा करने वाले दोनों वीरों की ‘साधु - साधु’ कहकर सराहना करने लगे- ‘भला, में अर्जुन के सिवा दूसरा कौन द्रोणाचार्य का सामना कर सकता है? यह क्षत्रिय धर्म कितना भयंकर है कि शिष्य को गुरु से युद्ध करना पड़ा है।’ इस प्रकार वहाँ युद्ध के मुहाने पर खड़े हुए योद्धा आपस में बातें करते थे।[4]

दोनों महाबाहु वीर क्रोध में भरकर निकट आ गये और बाण समूहों से एक दूसरे का आचछादित करने लगे। उनमें से कोई भी पराजित होने वाला नहीं था। भरद्वाज नन्दन द्रोण अत्यन्त कुपित हो, जिसके पृष्ठ भाग में सुवर्ण जड़ा हुआ था और जिसे उठाना दूसरों के लिये बहुत कठिन था, उस मान धनुष को खींचकर अर्जुन को बाणों से बींधने लगे। उन्होंने अर्जुन के रथ पर बाणों का जाल सा बिछा दिया। इतना ही नहीं, शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए उन तेजस्वी बाणों द्वारा उन्होंने सूर्य की प्रभा को भी आच्छादित कर दिया। जैसे मेघ पर्वत पर जल की वर्षा करता है, उसी प्रकार महाबाहु महारथी द्रोण पृथापुत्र अर्जुन को अत्यन्त वेगशाली तीखे बाणों द्वारा बींध रहे थे।

इसी प्रकार हर्ष में भरे हुए वेगशाली पाण्डुनन्दन अर्जुन भी भार सहन करने में समर्थ और शत्रुओं का नाश करने वाला उत्तम एवं दिव्य गाण्डीव धनुष लेकर बहुत से स्वर्ण भूषित विचित्र बाणों की वर्षा कर रहे थे। पराक्रमी पार्थ अपने धनुष से छूअे हुए बाण समूहों द्वारा तुरंत ही आचार्य द्रोण की बाण वर्षा को नष्ट करते जाते थे। यह एक अद्र्भुत सी बात थी। रथ से विचरने वाले कुन्ती पुत्र धनंजय सबके लिये दर्शनीय हो रहे थे। उन्होंने सब दिशाओं में एक ही साथ अस्त्रों की वर्षा दिखायी और आकाश को चारों और से बाणों द्वारा ढँककर एकमात्र अन्धकार में निमग्न कर दिया। उस समय आचार्य द्रोण कुहरे से ढके हुए की भाँति अदृश्य हो गये।। उत्तम बाणों से ढके हुए द्रोणाचार्य का स्वरूप उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो सब ओर से जलता हुआ कोई पर्वत हो। आचार्य द्रोण संग्राम भूमि में बड़ी शोभा पाने वाले थे।

संग्राम में तब मेघ गर्जना के समान गम्भीर नाद करने वाले अग्नि चक्र के सदृश भयंकर परम उत्तम आयुधश्रेष्ठ धनुष की टंकार फैलाते हुए उसे (कानों तक) खींचा और अपने यार समूहों से अर्जुन के उन सब बाणों को काट डाला। उस समय जलते हुए बाँसों के चटखने का सा बड़ा भयंकर शब्द हो रहा था। जिनकी मन बुद्धि अमेय है, उन द्रोण ने अपने विचित्र धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंखों वाले बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं तथा सूर्य के प्रकाश को भी ढक दिया। उस समय सोने की पाँख और झुकी हुई गाँठ वाले आकाशचारी बाणों के बहुत से समुदाय आकाश में दृष्टिगोचर हो रहे थे। वे सभी पक्षधारी बाण समुदाय आचार्य द्रोण के धनुष से प्रकट हुए थे। आकाश में उन बाणों का समूह परसपर सटकर एक ही विशाल बाण के समान दिखायी देता था।[5]

अर्जुन द्वारा बाणों की वर्षा

इस प्रकार वे दोनों वीर सुवर्ण भूषित महाबाणों की वर्षा करते हुए आकाश को मानो उल्काओं से आच्छादित करने लगे। कंक और मोर की पाँख वाले उन दोनों के बाण शरद्ऋतु में आकाश में विचरने वाले हंसों की पाँत के समान सुशोभित होते थे। महामना द्रोण और पाण्डु नन्दन अर्जुन का वह रोष पूर्ण युद्ध वृत्रासुर और इन्द्र के समान भयंकर प्रतीत होता था। जैसे दो हाथी एक दूसरे से भिड़कर दाँतों के अग्र भाग से प्रहार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों धनुष को अच्छी तरह खींचकर छोड़े हुए बाणों द्वारा एक दूसरे को घायल कर रहे थे। क्रोध में भरे हुए उन दोनों वीरो की रण भूमि में बड़ी शोभा हो रही थी। वे उस संग्राम में पृथक पृथक दिव्यास्त्र प्रकर करते हुए धर्म युद्ध कर रहे थे। तदनन्तर विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन ने आचार्य प्रवर द्रोण के द्वारा चलाये हुए शान पर तेज किये हुए बाणों को अपने तीखे सायकों से नष्ट कर दिया। वे भयानक पराक्रमी थे, उन्होंने दर्शकों को अपना अस्त्र कौशल दिखाते हुए तुरंत बहुसंख्यक बाणों द्वारा आकाश को ढँक दिया।

यद्यपि प्रचण्ड तेजस्वी नरश्रेष्ठ अर्जुन विपक्षी को मार डालने की इच्छा रखते थे, तो भी शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ आचार्य प्रवर द्रोण उस समर भूमि में झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा प्रहार करके अर्जुन के साथ मानो खेल कर रहे थे (उनमें अर्जुन के प्रति वात्सल्य का भाव उमड़ रहा था)। उस तुमुल यंद्ध में अर्जुन दिव्यास्त्रों की वर्षा कर रहे थे, किंतु आचार्य अपने अस्त्रों द्वारा उनके अस्त्रों का निवारण मात्र करके उन्हें लड़ा रहे थे। वे दोनों नरश्रेष्ठ जब द्रोण और अमर्ष में भर गये, तब उनमें परस्पर देवताओं और दानवों की भाँति घमासान युद्ध छिड़ गया। पाण्डु नन्दन अर्जुन आचार्य द्रोण के छोड़े हुए ऐन्द्र, वायव्य और आग्नेय आदि अस्त्रों को उसके विरोधी अस्त्र द्वारा बार बार नष्ट कर देते थे। इस प्रकार वे दोनों महान धनुर्धर शूरवीर तीखे बाण छोड़ते हुए अपनी बाण वर्षा द्वारा आकाश को एकमात्र अन्धकार में निमग्न करने लगे। अर्जुन के छोड़े हुए बाण जब देहधारियों पर पड़ते थे, तब पर्वतों पर गिरने वाले वज्र के समान भयंकर शब्द सुनायी देता था। जनमेजय! उस समय हाथी सवार, रथी और घुड़सवार लोहूलुहान होकर फूले हुए पलाश वृक्ष के समान दिखायी दकते थे।[6]

द्रोणाचार्य और अर्जुन के उस युद्ध में पार्थ के बाणों से पीड़ित हो कितने ही योद्धा मारे गये थे। कितनों की केयूर भूषित भुजाएँ कटकर गिरीं थीं। विचित्र वेष भूषा वाले महारथी धराशायी हो रहे थे। सुवर्ण जटित विचित्र कवच और ध्वजाएँ वहाँ बिखरी पड़ीं थीं। इन सब कारणों से वह सारी सेना उद्धान्त (भय से अचेत) सी हो गयी थी। उन दोनों के धनुष भार सहन करने में समर्थ थे। वे उन धनुषों को कँपाते हुए (तीखे) बाणों क्षरा एक दूसरे को बींधते और आच्छादित कर देते थे।[7]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-13
  2. 'अर्यास्तु मारिष' (अमर कोष)
  3. ही एक दूसरे की ओर हाथ बढ़ाकर मानो
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 58 श्लोक 14-26
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 58 श्लोक 27-41
  6. महाभारत विराट पर्व अध्याय 58 श्लोक 42-55
  7. महाभारत विराट पर्व अध्याय 58 श्लोक 56-68

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