द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख प्रकट करना

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 18 में द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख प्रकट करने का वर्णन हुआ है[1]-

भीम द्वारा द्रौपदी से दु:खी होने का कारण पूछना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय लज्जित और भयभीत हुई द्रौपदी के नेत्रों में आँसू भर आये थे। वह मुँह नीचा किये मौन बैठी रही; कुछ भी बोल न सकी। तब पाण्डवप्रवर युधिष्ठिर के परम मित्र भयंकर पराक्रमी महाबली भीम इस प्रकार बोले- ‘सुन्दरि! गजराज की भाँति लीला-विलासपूर्वक मन्दगति से चलने वाली प्रिये। बताओ; मे तुम्हारा कौन सा प्रिय करूँ ?’।

द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख प्रकट करना

द्रौपदी बोली - जिस स्त्री के पति यूधिष्ठिर हों, वह बिना शोक के रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है? तुम मेरे सारे दुःखों को जानते हुए भी मुझसे कैसे पूछते हो? दुर्योधन के सेवक के रूप में दुःशासन मुझे दासी कहकर जो उस समय कौरवों की सभाभवन में जनसमाज के भीतर घसीट ले गया, वह अपमान की आग मुझे आज तक जला रही है। शत्रुओं को संताप देने वाले महाबाहु भीम! उस समय वहाँ बैठे हुए कर्ण आदि क्षत्रियों ने, दुर्योधन ने, मेरे दोनों ससुर भीष्म और बुद्धिमान विदुर ने तथा द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने भी मुझे उस दुरावस्था में देखा था। पाण्डुनन्दन! इस प्रकार तुम्हारे जीते जी मेरे केश पकड़कर मुझे दोनों श्वसुरों तथा दुर्योधन आदि भ्राताओं के बीच राजसभा में लाया गया। स्वामिन! मुझ द्रुपदकन्या को छोड़कर दूसरी मेरी जैसी कौन राजकुमारी होगी, जो ऐसा दुःख भोगकर जी रही हो। वनयात्रा में जाने पर सिन्धुराज जयद्रथ ने जो मेरा स्पर्श कर लिया, यह दूसरा अपमान था। उसे भी कौन सह सकती है ? पाण्डुकुमार! तुम्हारे जीते जी मुझे हिंसक जन्तुओं से भरे हुए विषम एवं दुर्गम प्रदेशों में पैदल विचरना पड़ा। तदन्न्तर बारहवें वर्ष के अंत में मैं जंगली फल-मूलों का आहार करती हुई इस विराटनगर में आयी और सुदेष्णा की सेविका बन गयी। मैं सत्यधर्म के मार्ग में स्थित होकर आज दूसरी स्त्री की सेवा करती हूँ। पाण्डुपुत्र! तुम्हारे जीते जी मैं प्रतिदिन राजा विराट के लिये गोशीर्ष, पद्काष्ठ और हरिश्याम आदि चन्दन पीसती हूँ। फिर भी तुम्हारे संतोष के लिये मैं ऐसे बहुत से दुःखों को कुछ भी नहीं गिनती। मैं द्रुपद की पुत्री और धृष्टद्युम्न की बहिन हूँ। अग्निकुण्ड से मेरी उत्पत्ति हुई है। मैं कभी धरती पर पैदल नहीं चलती थी।[2] मत्स्यदेश के राजा विराट के सामने उस जुआरी के देखते-देखते कीचक ने जो लात मारकर मेरा अपमान किया है, उसको सहकर तेरी जैसी कौन राजकुमारी जीवित रह सकती है ? भरतभूषण कुन्तीनन्दन! ऐसे बहुत से क्लेशों द्वारा मैं निरन्तर पीड़ित रहती हूँ; क्या तुम यह नहीं जानते? फिर मेरे जीने का ही क्या प्रयोजन है? भारत! पुरुष सिंह! राजा विराट का जो यह कीचक नामक सेनापति है, वह उनका साला भी लगता है। उसकी बुद्धि बड़ी खोटी है। राजमहल में सैरन्ध्री के वेश में निवास करती हुई मुझे देखकर वह दुष्टात्मा प्रतिदिन ही आकर मुझे देखकर वह दुष्टात्मा प्रतिदिन ही आकर मुझसे कहता है- ‘मेरी ही पत्नी बन जाओ’। शत्रुदमन! उस मार डालने योग्य पापी के द्वारा रोज-रोज यह घृणित प्रस्ताव सुनते-सुनते समय से पके हुए फल की भाँति मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है।

पुरुषसिंह पाण्डुपुत्र! जैसे साठ वर्ष का मतवाला यूथपति गजराज धरती पर गिरे हुए बेल के फल को पैरों से दबाकर कुचल डाले, उसी प्रकार कीचक के मस्तक को पृथ्वी पर गिराकर बाँयें पैर से मसल डालो। यहद कीचक इस रात्रि के बीतने पर प्रातःकाल उठकर उगते हुए सूर्य का दर्शन कर लेगा, तो मैं जीवित नहीं रह सकूँगी। दूषित द्यूतक्रीड़ा में लगे रहने वाले अपने उस जुआरी भाई की निन्दा करो, जिसकी करतूत से मैं इस अत्यन्त दुःख में पड़ गयी हूँ।

द्रौपदी द्वारा महाराज युधिष्ठिर की दुर्दशा पर दु:ख प्रकट करना

निन्दनीय जूए में आसक्त रहने वाले उस जुआरी को छोड़कर दूसरा कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपने साथ ही राज्य तथा सर्वस्व परित्याग करके वनवास लेने की शर्त पर जूआ खेल सकता है? यदि वे प्रतिदिन शाम सवेरे एक सहसत्र स्वर्णमुद्राओं से जूआ खेलते तथा जो दूसरे बहुमूल्य धन थे, उनको- सोने, चाँदी, वस्त्र, सवारी, रथ, बकरी, भेड़, घोड़े और खच्चरों आदि के समूह को बहुत वर्षों तक भी दाँव पर लगाते रहते, तो भी हमारा राज्य वैभव कभी क्षीण नहीं होता। जूए की आसक्ति ने इन्हें राजलक्ष्मी के सिंहासन से नीचे उतार दिया है ओर अब ये अपने उन कर्मों का चिन्तन करते हुए अज्ञ की भाँति चुपचाप बैठे हैं। जिनके कहीं यात्रा करते समय दस हजार हाथीऔं सोने की मालाएँ पहने हुए सहस्रों घोड़े पीछे-पीछे चलते थे, वे ही महाराज यहाँ जूए से जीविका चलाते हैं। इन्द्रप्रस्थ में जिनकी सवारी के लिये एक लाख रथ प्रस्तुत रहते थे और जिन महाराज युधिष्ठिर की सेवा में सहस्रों महापराक्रमी राजा बैठा करते थे, जिनके भेजनालय में नित्य एक लाख दासियाँ सोने के पात्र हाथ में लिये दिन-रात अतिथियों को भोजन कराया करती थीं तथा जो दाताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर रोज सहस्रों सवर्णमुद्राएँ दान में बाँटा करते थे, वे ही धर्मराज यहाँ जूए में कमाये हुए महान अनर्थकारी धन से जीवन-निर्वाह कर रहे हैं। इन्द्रप्रस्थ में विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण करने वाले बहुत से सूत और मगाध मधुर स्वर में संयुक्त वाणी द्वारा सायंकाल और प्रातःकाल इन महाराज की स्तुति किया करते थे। तपस्या और वेदज्ञान से सम्पन्न सहस्रों पूर्णकाम ऋषि-महर्षि प्रतिदिन इनकी राजसभा में बैठा करते थे। अट्ठासी हजार स्नातक गृहस्थ ब्राह्मणों का, जिनमें से एक-एक की सेवा के लिये तीन-तीन दासियाँ थीं, राजा युधिष्ठिर अपने यहाँ पालन करते थे। साथ ही ये महाराज दान न लेने वाले दस हजार ऊर्ध्वरेता संन्यासियों का भी स्वयं ही भरण-पोषण करते थे। आज वे ही इस अवस्था में रह रहे हैं। जिनकी कोमलता, दया और सबको अन्न-वस्त्र देना आदि समसत सद्गुण विद्यमान थे, वे ही ये महाराज आज इस दुरावस्था में पड़े हैं। धैर्यवान् तथा सत्यपराक्रमी राजा युधिष्ठिर अपने कोमल स्वभाव के कारण सदा सबको भोजन आदि देने में मन लगाते थे और अपने राज्य के अनेक अंधों, बूढ़ों, अनाथों, बालकों तथा दुर्गति में पड़े हुए लोगों का भरण पोषण करते थे। वे ही युधिष्ठिर आज मत्स्यराज के सेवक होकर परतन्त्रतारूपी परक में पड़े हुए हैं। ये सभा में राजा को जूआ खेलाते और कंक कहकर अपना परिचय देते हैं।[3]

इन्द्रप्रस्थ में रहते समय जिन्हें सब राजा भेंट देते थे, वे ही आज दूसरों से अपने भरण-पोषण के लिये धन पाने की इच्छा रखते हैं। इस पृथ्वी का पालन करने वाले बहुत से भूपाल जिनकी आज्ञा के अधीन थे, वे ही महाराज आज विवश होकर दूसरों के वश में रहते हैं। सूर्य की भाँति अपने तेज से सम्पूर्ण भूमण्डल को प्रकाशित कर अब ये धर्मराज युधिष्ठिर राजा विराट की सभा में एक साधारण सदस्य बने हुए हैं। पाण्डुनन्दन! देखो, राजसभा में ऋषियों के साथ अनेक राजा जिनकी उपासना करते थे, वे ही पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर आज दूसरे की उपासना कर रहे हैं। एक सामान्य सदस्य की हैसियत से दूसरे की सेवा में बैठे हुए वे विराट के मन को प्रिय लगने वाली बातें करते हैं। महाराज युधिष्ठिर को इस दशा में देखकर निश्चय ही मेरा क्रोध बढ़ जाता है। जो धर्मात्मा और परम बुद्धिमान हैं, जिनका कभी इस दंरवस्था में मड़ना उचित नहीं है, वे ही जीविका के लिये आज दूसरे के घर में पड़े हैं। महाराज युधिष्ठिर को इस दशा में देखकर किसे दुःख नहीं होगा? वीर! पहले राजसभा में समस्त भूमण्डल के लोग जिनकी सब ओर से उपासना करते थे, भारत! अब उन्हीं भरतवंशशिरामणि को आज दूसरे राजा की सभा में बैठे देख लो। भीमसेन! इस प्रकार अनेक दुःखों से अनाथ की भाँति पीड़ित होती हुई मैं शोक के महासागर में डूब रही हूँ, क्या तुम मेरी यह दुर्दशा नहीं देखते?[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-9
  2. परंतु अब यहाँ यह दुर्दशा भोग रही हूँ
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 18 श्लोक 10-25
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 18 श्लोक 26-33

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