अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ युद्ध

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 59 में अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ युद्ध का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ युद्ध की कथा कही है।[1]

अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ युद्ध वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं - महाराज! तदनन्तर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने रण भूमि में जब अर्जुन पर बड़े वेग से आक्रमण किया, तब अर्जुन ने भी प्रचण्ड वायु वेग के समान तीव्र गति से आते हुए अश्वत्थामा को रोका। उस समय जल बरसाने वाले मेघ की भाँति वह महान शर समूह की वर्षा कर रहा था। उन दोनों में देवताओं और असुरों के समान भारी संघर्ष होने लगा। वे दोनों (एक दूसरे पर) बाण समूहों की बौछार करते हुए वृत्रासुर और इन्द्र के समान जान पड़ते थे। उनके बाणों के जाल से आच्छादित होकर आकाश सब ओर से अन्धकारमय हो रहा था। उस समय न तो सूर्य प्रकाशित हो रहे थे और न वायु ही चल पाती थी। शत्रु विजयी जनमेजय! जब दोनों योद्धा एक दूसरे पर आघात करते, तब जलते हुए बाँसों के चटखने की भाँति चट चट शब्द होने लगता था। अर्जुन ने अश्वत्थामा के घोड़ों को घायल करके अल्पजीवी बना दिया। राजन! वे मोह ग्रस्त (मूर्च्छित) होने के कारण किसी भी दिशा को नहीं जान पाते थे।

तदनन्तर महापराक्रमी अश्वत्थामा ने रण भूमि में विचरते हुए अर्जुन का छोटा सा छिद्र (तनिक सी असावधानी) देख कर क्षुर नामक बाण से उनकी प्रत्यंचा काट डाली। उसके इस अतिमानुष कर्म को देखकर सब देवता उसकी बड़ी प्रशंसा करने लगे। द्रोण, भीष्म, कर्ण और कृपाचार्य- ये सभी महारथी साधुवाद देते हुए अश्वत्थामा के उस कार्य की सराहना करने लगे। तदनन्तर द्रोण पुत्र ने अपना श्रेष्ठ धनुष खींचकर कंक पक्षी के पंख वाले बाणों द्वारा रथियों में श्रेष्ठ पार्थ की छाती में पुनः भारी आघात पहुँचाया। उस समय महाबाहु पार्थ ठहाका मारकर हँसने लगे। फिर उन्होंने गाण्डीव धनुष पर बलपूर्वक प्रत्यन्चा चढ़ा दी। तदनन्तर पसीने से अर्धचन्द्राकार धनुष की डोर को माँजकर अर्जुन अश्वत्थामा से भिड़ गये, मानो कोई उन्मत्त गज यूथाधिपति किसी दूसरे मतवाले हाथी के साथ जा भिड़ा हो। इसके बाद उस रण भूमि में भूमण्डल के इन दोनों अनुपम वीरों का ऐसा भयंकर संग्राम हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था। समस्त कौरव विस्मय विमुग्ध होकर उन दोनों वीरों की ओर देखने लगे। महापराक्रमी अश्वत्थामा और अर्जुन परस्पर भिड़े हुए दो यूथपतियों की भाँति लड़ रहे थे। वे दोनों पुरुषसिंह वीर विषधर सर्प के समान आकार वाले जलते हुए से बाणों द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचाने लगे।[1]

अर्जुन द्वारा कर्ण पर धावा

महात्मा पाण्डु नन्दन के पास दो दिव्य अक्षय तूणीर थे, इससे कुंतीपुत्र शूरवीर अर्जुन रण भूमि में पर्वत की भाँति अविचल खड़े रहे। परंतु संग्राम में शीघ्रता पूर्वक बार बार शरसंधान करने वाले अश्वत्थामा के बाण जल्दी समाप्त हो गये। इस कारण अर्जुन उसकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए। तब कर्ण ने अपने महान धनुष को बड़े जोर से खींचकर टंकार की। उससे वहाँ महान हाहाकार का शब्द होने लगा। तब अर्जुन ने जहाँ धनुष की टंकार हो रही थी, उधर दृष्टि डाली, तो वहाँ राधानन्दन कर्ण दिखायी पड़ा। इससे उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। तब कुरुश्रेष्ठ अर्जुन रोष के वशीभूत हो कर्ण को ही मार डालने की इच्छा से दोनों आँखें ‘फाड़- फाड़कर’ उसकी ओर देखने लगे। राजन!

इस प्रकार जब अर्जुन ने उधर दृष्टि हटाकर दूसरी ओर मुँह फेर लिया, तब बहुत से सैनिक तुरंत वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने द्रोण पुत्र के हजारों बाणों को (रण भूमि से उठाकर) उन्हें समर्पित कर दिया। तब शत्रु विजयी महाबाहु धनुजय ने द्रोण पुत्र को वहीं छोड़कर सहसा कर्ण पर ही धावा किया। और कर्ण के पास पहुँचकर उसके पास द्वन्द्व युद्ध की इच्छा रखते हुए कुन्ती कुमार ने क्रोध से लाल आँखें करके यह बात कही।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-13
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 59 श्लोक 14-21

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