- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 38 में कौरव सेना को देखकर उत्तरकुमार के भय का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
कुमार उत्तर द्वारा बृहनला को आदेश
वैशम्पायन जी कहते हैं -जनमेजय! राजधानी से निकलकर विराट कुमार उत्तर ने सर्वथा निर्भय हो सारथि से कहा - ‘बृहनले! जहाँ कौरव गये हैं, उधर ही रथ ले चलो। ‘मैं यहाँ विजय की आशा से एकत्र होने वाले समसत कौरवों को परास्त करके उनसे अपनी गौएँ वापस ले शीघ्र अपने नगर में लौट आऊँगा। तब पाण्डु नन्दन अर्जुन ने उत्तर के उत्तम जाति के घोड़ों को हाँका और उनकी बाग ढीली कर दी। नरश्रेष्ठ अर्जुन के हाँकने पर, सोने की माला पहने हुए वे घोड़े हवा के समान वेग से चलने लगे, मानो आकाश में अपनी टाप अड़ाते हुए रथ लिये उड़े जा रहे हों। थोड़ी ही दूर जाने पर शत्रुहन्ता विराट पुत्र उत्तर और धनंजय ने महाबली कौरवों की विशाल सेना देखी। श्मशान भूमि के समीप जाकर उन्होंने कौरवों को पा लिया। वे दोनों उस शमी वृक्ष के आस पास सब ओर सेना का व्यूह बनाकर खड़े हुए कौरव सैनिकों की ओर देखने लगे। उनकी वह विशाल वाहिनी समुद्र के समान जान पड़ती थी। जब वह चलती, तब ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाश में असंख्य वृक्षों से भरा हुआ वन चल रहा हो। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय!
कौरव सेना का वर्णन
कौरव सेना के चलने से ऊपर उठी हुई धरती की धूल अनतरिक्ष को छूती सी दिखायी देती थी। उसके कारण समसत प्राणियों की दृष्टि का लोप सा हो गया था - किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता था। वह भारी सेना हाथी, घोड़ों एवं रथों से भरी हुई थी। कर्ण, दुर्योधन, कृपाचार्य, भीष्म, अश्वत्थामा और महान धनुर्धर एवं परम बुद्धिमान द्रोण उसकी रक्षा कर रहे थे।
कौरव सेना को देखकर उत्तरकुमार का भय
उसे देखकर विराट पुत्र उत्तर के रोंगटे खड़े हो गये। उसने भय से व्याकुल होकर अर्जुन से कहा। उत्तर बोला - बृहन्नले! मुझमें कौरवों के साथ युद्ध करने का साहस नहीं है; क्योंकि देखो, भय के कारण मेरे रोएँ खड़े हो गये हैं। इस सेना के भीतर बहुतेरे बड़े - बड़े वीर हैं। यह बड़ी भयानक जान पड़ती है। इसे परास्त करना तो देवताओं के लिये भी अत्यनत कठिन है। कौरवों की सेना का कहीं अनत नहीं है। मैं इसका सामना नहीं कर सकता। भयानक धनुष वाली भरत वंशियों की इस विशाल वाहिनी में प्रवेश करना तो दूर रहे, मैं उसके सम्बन्ध में बात भी नहीं कर सकता।रथ, हाथी और घोड़े से यह कौरव दल खचाखच भरा हुआ है। पैदल सिपाहियों और असंख्य ध्वजाओं से व्याप्त है। इसलिये रण भूमि में इन शत्रुओं को देखकर ही मेरा हृदयश् व्यथित सा हो गया है। जहाँ द्रोण, भीष्म, कृप, विविंशति, अयवत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाहलिक तथा रथियों में श्रेष्ठ वीर राजा दुर्योधन हैं। जो सबके सब तेजस्वी, महान धनुर्धर और युद्ध की कला में प्रवीण है। ये कौरव वीर मद से उन्मत्त हुए महान गजराजों के समान जान पड़ते हैं। ये सबके सब ध्वजा पताकाओं से युक्त, नीति - निपुण, महाधनुर्धर तथा सम्पूर्ण अस्त्र विद्या का सुनिश्चित ज्ञान रखते हैं। इन पर विजय पाना सम्पूर्ण सेनाओं के लिये ही नहीं, इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन है। इनके हाथियों पर भी पताकाएँ फहरा रही हैं। बड़े - बड़े रथ ध्वजाओं से सुशोभित हो रहे हैं। विचित्र आभूषणों से आभूषित घोड़े चारों ओर फैलकर विजय के लिये उद्योगशील प्रतीत होते हैं। ऐसे शूरवीर कौरवों को युद्ध में जीतने के लिये मैं दुर्बुद्धि बालक कहाँ आ गया ? सेना की व्यूह रचना करके प्रहार के लिये उद्यत खड़े हुए इन कौरवों को देखकर ही मेरे रोंगटे खड़े हो गये हैं। मुझे मूर्च्छा सी आ रही है।
उत्तर का विलाप
वैशम्पायन जी कहते हैं -जनमेजय! मूर्ख उत्तर एक साधारण कोटि का मनुष्य था और छद्म वेशधारी सव्यसाची अर्जुन असाधारण वीर थे। अतः उनके प्रभाव को न जानने के कारण वह मूर्खतावश उनके पास रहकर भी उन्हीं के देखते - देखते यों विलाप करने लगा- बृहनले! मेरे पिता सूने नगर में उसकी रक्षा के लिये मुझे अकेला रखकर स्वयं सारी सेना साथ ले त्रिगर्तों से युद्ध करने के लिये गये हैं। मेरे पास यहाँ कोई सैनिक नहीं है। मैं अकेला बालक हूँ और मैंने अस्त्र विद्या में अभी अधिक परिश्रम भी नहीं किया है। ऐसी दशा में अस्त्र शस्त्रों के ज्ञाता और प्रौढ़ अवस्था वाले इल बहुसंख्यक कौरवों का सामना मैं नहीं कर सकूँगा। अतः तुम रथ लेकर लौट चलो’। [2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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