कीचक द्वारा द्रौपदी का अपमान

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 16 में कीचक द्वारा द्रौपदी के अपमान का वर्णन हुआ है[1]-

कीचक एवं द्रौपदी का संवाद

कीचक ने कहा- सुन्दर अलकोंवाली सैरन्ध्री! तुम्हारा स्वागत है। आज की रात का प्रभात मेरे लिये बड़ा मंगलमय है। अब तुम मेरी स्वामिनी होकर मेरा प्रिय कार्य करो। मैं दासियों को आज्ञा देता हूँ; वे तुम्हारे लिये सोने के हार, शंख की चूडि़याँ, विभिन्न नगरों में बने हुए शुभ्र सुवर्णमय कर्णफूल के जोडत्रे, सुन्दर मणि-रत्नमय आभूषण, रेशमी साडि़याँ तथा मृगचर्म आदि ले आवें।

द्रौपदी बोली- दुर्बुद्धे! जैसे निषद ब्राह्मणी का स्पर्श नहीं कर सकता, उसी प्रकार तुम भी मुझे छू नहीं सकते। तुम मेरा तिरस्कार करके भारी से भारी दुर्गति में न पड़ो। उस दुरवस्था में न जाओ, जहाँ धर्ममर्यादा का छेदन करने वाले बहुत से परस्त्रीगामी मनुष्य बिल में सोने वाले कीड़ों की भाँति जाया करते हैं। राजकुमारी सुदेष्णा ने मुझे मदिरा लाने के लिये तुम्हारे पास भेजा है। उनका कहना है- ‘मुझे बड़े जोर की प्यास लगी है; अतः शीघ्र मेरे लिये पीने योग्य रस ले आओ’।

कीचक ने कहा- कल्याणी! राजपुत्री सुदेष्णा की मँगायी हुई वस्तु दूसरी दासियाँ पहुँचा देंगी। ऐसा कहकर सूतपुत्र ने द्रौपदी का दाहिना हाथ पकड़ लियो।

द्रौपदी बोली- ओ पापी! यदि मेंने आज तक कभी मन से भी अभिमानवश अपने पतियों के विरुद्ध आचरण न किया हो, तो इस सत्य के प्रभाव से मैं देखूँगी कि तू शत्रु के अधीन होकर पृथ्वी पर घसीटा जा रहा है।

कीचक द्वारा द्रौपदी का अपमान

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! बड़े-बड़े नेत्रों वाली द्रौपदी को इस प्रकार फटकारती देख कीचक ने उसे पकड़ लेने की इच्छा की; किन्तु वह सहसा झटका देकर पीछे की ओर हटने लगी; इतने में ही झपटकर कीचक ने उसके दुपट्टे का छोर पकड़ लिया। अब वह बड़े वेग से उसे काबू में लाने का प्रयत्न करने लगा। इधर राजकुमारी द्रौपदी बारंबार लंबी साँसें भरती हुई उससे छूटने का प्रयत्न करने लगी। उसने सँभलकर दोनों हाथों से कीचक को बड़े जोर का धक्का दिया। जिससे वह पापी जड़-मूल से कटे हुए वृक्ष की भाँति (धम्म से) जमीन पर जा गिरा। इस प्रकार पकड़ में आने पर कीचक को धरती पर गिराकर भय से काँपती हुई द्रौपदी ने भागकर उस राजसभा की शरण ली, जहाँ राजा युधिष्ठिर विद्यमान थे। कीचक ने भी उठकर भागती हुई द्रौपदी का पीछा किया और उसका केशपाश पकड़ लिया। फिर उसने राजा के देखते-देखते उसे पृथ्वी पर गिराकर लात मारी।

सूर्य देव द्वारा द्रौपदी की रक्षा

भारत! इतने में ही भगवान सूर्य ने जिस राक्षस को द्रौपदी की रक्षा के लिये नियुक्त कर रक्खा था, उसने कीचक को पकड़कर आँधी के समान वेग से दूर फेंक दिया। राक्षस द्वारा बलपूर्वक आहत होकर कीचक के सारे शरीर में चक्कर आ गया और वह जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति निष्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सभा में महामना राजा विराट के तथा वृद्ध ब्राह्मणों और क्षत्रियों के देखते देखते कीचक के पादप्रहार से पीड़ित हुई द्रौपदी के मुँह से रक्त बहने लगा। उसे उस अवस्था में देखकर समसत सभासद् सब ओर से हाहाकार कर उठे और सब लोक कहने लगे- ‘सूतपुत्र कीचक! तुम्हारा यह कार्य उचित नहीं है। यह बेचारी अबला अपने बन्धु-बान्धवों से रहित है। इसे क्यों पीड़ा दे रहे हो?’ उस समय भीमसेन और युधिष्ठिर भी राजसभा में बैठे हुए थे। उन्होंने कीचक के द्वारा द्रौपदी का यह अपमान अपनी आँखों देखा; जिसे वे सहन न कर सके।

भीमसेन का उत्तेजित होना

महामना भीमसेन दुरात्मा कीचक को मार डालने की इच्छा से उस समय रोषवश दाँतों से दाँत पीसने लगे। उनकी आँखों की पलकें ऊपर उठकर तन गयीं। उनमें धूआँ सा छा गया, ललाट में पसीना निकल आया और भौंहें टेढ़ी होकर भयंकर प्रतीत होने लगीं। शत्रुहन्ता भीम हाथ से माथे का पसीना पोंछने लगे। फिर तुरंत ही प्रचण्ड कोप में भर गये और सहसा उठने की इच्छा करने लगे। तब राजा युधिष्ठिर ने रहस्य प्रकट हो जाने के डर से अपने अंगूठे से भीम का अंगूठा दबाया अर इस प्रकार उन्हें उत्तेजित होने से रोका। भीमसेन मतवाले गजराज की भाँति एक वृक्ष की ओर देख रहे थे।

युधिष्ठिर का भीमसेन को समझाना

तब युधिष्ठिर ने उन्हे रोकते हुए कहा-‘बल्लव! क्या तुम्हें ईंधन के लिये वृक्ष की ओर देखते हो? यदि रसोई के लिये सूखी लकड़ी चाहिये, तो बाहर जाकर वृक्ष से ले लो ‘जिस हरे भरे वृक्ष की शीतल छाया का आरय लेकर रहा जाय, उसके किसी एक पत्ते से भी द्रोह नहीं करना चाहिये। उसके पहले उपकारों को सदा याद रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिये’। तब भाई के संकेत को समझने वाले भीमसेन उस समय चुप हो गये। भीम के उस क्रोध को तथा राजा युधिष्ठिर की शान्तिपूर्ण चेष्टा को देखकर द्रौपदी अधिक क्रुद्ध हो उठी।

द्रौपदी की याँचना

कीचक के पीछा करने से कृष्णा की आँखें रोष से लाल हो रही थी। वह खीज से बार-बार रोने लगी। इधर सुन्दर कटिप्रान्त वाली द्रौपदी राजसभा के द्वार पर आकर अपने दीन हृदय वाले पतियों की ओर देखती हुई मत्स्यनरेश से बोली। उस समय वह प्रतिज्ञारूप धर्म से आबद्ध होने के कारण अपने स्वरूप को छिपा रही थी; किन्तु उसके नेत्र मानो जला रहे हों, इस प्रकार भयंकर हो उठे थे।[2] द्रौपदी ने कहा - जो स्वभाव से ही प्रजाजनों की रक्षा में लगे हुए हैं, सदा धर्म और सत्य के मार्ग में स्थित हैं तथा प्रजा और अपनी संतान में कोई अनतर नहीं समझते, उन अमित तेजस्वी राजाओं को चाहिये कि वे सदा आश्रितों का पालन एवं संरक्षण करें। जो प्रियजनों तथा द्वेषपात्रों में भी समान भाव रखते हैं, प्रजाजनों में विवाद आरम्भ होने पर जो राजा धर्मासन पर बैठकर समानभाव से प्रत्येक कार्य पर विचार करते हैं, वे दोनों लोकों को जीत लेते हैं।। राजन्! आप धर्म के आसन पर बैठे हैं। मुझ निरपराध अबला की रक्षा कीजिये। महाराज! मैंने कोई अपराध नहीं किया है, तो भी दुरात्मा कीचक ने आपके देखते-देखते मुझको लात मारी है; मेरे साथ (खरीदे हुए) दास का सा बर्ताव किया है। मत्स्यराज! जैसे पिता अपने औरस पुत्रों की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप अपने प्रजाजनों का संरक्षण कीजिये। जो मोह में डूबा हुआ राजा अधर्मयुक्त कार्य करता है, उस दुरात्मा को उसके शत्रु शीघ्र ही वश्सा में कर लेते हैं। आप मत्स्यकुल में उत्पन्न हुए हैं। सत्य ही मत्स्यनरेशों का महान आश्रय रहा है। आप ही इस धर्मपरायण कुल में ऐसे ही धर्मात्मा पैदा हुए हैं। अतः नरेश! मैं आपसे शरण देने के लिये रुदन करती हूँ। राजेन्द्र! आज मुझे इस पापी कीचक से बचाइये। पुरुषाधम कीचक यहाँ मुझे असहाय जानकर मार रहा है। यह नीच अपने धर्म की ओर नहीं देखता है। जो भूमिपाल न करने योग्य कार्यों का आरम्भ नहीं करते, करने योग्य कर्तव्यों का निरन्तर पालन करते हैं और सदा प्रजा के साथ उत्तम बर्ताव करते हैं, वे स्वर्गलोक में जाते हैं।

परंतु राजन! जो राजा कर्तव्य और अकर्तव्य के अन्तर को जानते हुए भी स्वेच्छाचारितावश प्रजावर्ग के साथ पापाचार करते हैं, वे अधोमुख हो नरक में जाते हैं।। राजा लोग यज्ञ, दान अथवा गुरुसेवा से भी वैसा धर्म (पुण्य) नहीं होता है, जैसा कि अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करने से प्राप्त करते हैं। पूर्वकाल में सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी ने क्रिया करने और न करने की स्थिति में पुण्य ओर पाप की प्राप्ति के विषय में इस प्रकार कहा था- ‘मनुष्यों! तुम लोगों को इस पृथ्वी लोक मेें द्वन्द्वरूप में प्राप्त धर्म और अधर्म के विषय में भली-भाँति समझकर कर्म करना चाहिये; क्योंकि अच्छी या बुरी जैसी नीयत से काम किया जाता है, वैसा ही कर्मजनित फल मिलता है। ‘कल्याणकारी मनुष्य कल्याण का और पापाचारी पुरुष पाप के फलस्वरूप दुःख का भागी होता है। जो इनके संसर्ग में आता है, वह भी (कर्मानुसार) स्वर्ग या नरक में जाता है। ‘मनुष्य मोहपूर्वक सत्कर्म या दुष्कर्म करके मृत्यु के बाद भी मन-ही-मन पश्चाताप करता रहता है’। इस प्रकार उत्तम वचन कहकर ब्रह्मा जी ने इन्द्र को विदा कर दिया। इन्द्र भी ब्रह्मा जी से पूछकर देवलोक में आये और देवसाम्राज्य का पालन करने लगे। राजेनद्र! देवाधिदेव परमेष्ठी ब्रह्मा जी ने जैसा उपदेश दिया है, उसके अनुसार आप भी कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्णय में दृढ़ता पूर्वक लगे रहिये।

विराट का कीचक पर शासन करने में असमर्थ होना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदी के इस प्रकार विलाप करने पर भी मत्स्यराज विराट बलाभिमानी कीचक पर शासन करने में असमर्थ ही रहे। उन्होंने शान्तिपूर्वक समझा-बुझाकर ही सूत को वैसा करने से मना किया। यद्यपि कीचक ने भारी अपराध किया था, तो भी मत्स्यराज ने उसे अपराध के अनुसार दण्ड नहीं दिया।

द्रौपदी का विलाप

यह देख देवकन्या के समान सुन्दरी एवं व्यवहार धर्म को जानने वाली साध्वी द्रौपदी उत्तम धर्म का स्मरण करती हुई राजा विराट तथा समस्त सभासदों की ओर देखकर दुखी हृदय से इस प्रकार बोली- ‘जिन मेरे पतियों के वैरी को पाँच देशों को पार करके छठे देश में रहने पर भी भय के मारे नींद नहीं आती, आज उन्हीं की मानिनी पत्नी मुझ असहाय अबला को एक सूतपुत्र ने लात से मारी है।[3] ‘जो सदा दूसरों को देते हैं, किन्तु किसी से याचना नहीं करते, जो ब्राह्मण भक्त तथा सत्यवादी हैं, उन्हीं की मुझ मानिनी पत्नी को सूतपुत्र ने लात मारी है। ‘जिनके धनुष की टंकार सदा देव-दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि के समान सुनायी पड़ती है, उन्हीं की मुझ मानिनी पत्नी को सूतपुत्र ने लात से मारा है। ‘जो तपस्वी, जितेनिद्रय, बलवान् और अत्यन्त मानी हैं, उन्हीं की मुझ मानिनी पत्नी पर सुतपुत्र ने पैर से आघात किया है। ‘मेरे पति इस सम्पूर्ण संसार को मार सकते हैं; किंतु वे धर्म के बन्धन में बँधे हैं, इसी से आज उनकी मानिनी पत्नी पर सूतपुत्र ने पैर से प्रहार किया। ‘जो शरण चाहने वाले अथवा शरण में आये हुए सब लोगों को शरण देते हैं, वे मेरे महारथी पति अपने स्वरूप को छिपाकर आ जगत में कहाँ विचर रहे हैं ? जो अमिततेजस्वी और बलवान हैं, वे (मेरे पति) एक सूतपुत्र द्वारा मारी जाती हुई अपनी सती-साध्वी प्रिय पत्नी का अपमान कायरों और नपुंसकों की भाँति कैसे सहन कर रहे हैं ? ‘आज उनका अमर्ष, पराक्रम और तेज कहाँ है , जो एक दुराचारी की मार खाती हुई अपनी पत्नी की रक्षा नहीं करते हैं। यहाँ का राजा विराट भी धर्म को कलंकित करने वाला है; जो मुझ निरपराध अबला को अपने सामने मार खाती देखकर भी सहन किये जाता है। भला, इसके रहते मैं इस अपमान का बदला चुकाने के लिये क्या कर सकती हूँ ?

‘यह राजा होकर भी कीचक के प्रति कुछ भी राजोचित न्याय नहीं कर रहा है। मत्स्रूराज! तुम्हारा यह लुटेरों का सा धर्म इस राजसभा में शोभा नहीं देता। तुम्हारे निकट इस कीचक द्वारा मुझ पर मार पड़ी, यह कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यहाँ जो सभासद बैठे हैं, वे भी कीचक का यह अत्याचार देखें। ‘कीचक को धर्म का ज्ञान नहीं है और मत्स्यराज भी किसी प्रकार धर्मज्ञ नहीं हैं तथा जो इस अधर्मी राजा के पास बैठते हैं, वे सभासद भी धर्म के ज्ञाता नहीं हैं’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! उत्तम वर्णवाली द्रौपदी ने उस समय आँखें में आँसू भरकर ऐसे वचनों द्वारा मत्स्यराज को बहुत फटकारा और उलाहना दिया।

विराट का संवाद

तब विराट बोले- सैरन्ध्री! हमारे परोक्ष तुम दोनों में किस प्रकार कली हुआ है; इसे मैं नहीं जानता और वास्तविक बात को जाने बिना न्याय करने में मेरा क्या कौशल प्रकट होगा ?

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर सभासदों ने सारा रहस्य जानकर द्रौपदी की बार-बार सराहना की। अनेक बार साधुवाद दिया और कीचक की निन्दा करते हुए उसे बहुत धिक्कारा।

सभासदों का संवाद

सभासद बोले- सम्पूर्ण मनोहर अंगों से सुशोभित यह बड़े-बड़े नेत्रों वाली साध्वी जिसकी धर्मपत्नी है, उसे जीवन में बहुत बड़ा लाभ मिला है। वह किसी प्रकार शोक नहीं कर सकता।[4] जिसका शरीर शुभ और हृष्ट-पुष्ट है, जिसका मुख अपने सौन्दर्य से कमल को पराजित कर रहा है तथा जिसकी मन्द मन्द गति हंस को और मुस्कान कुन्दपुष्पों की शोभा को तिरस्कृत कर रही है, वही यह नारी पदप्रहार के योग्य नहीं है। जिसके बत्तीसों दाँत मसूड़ों में दृढ़ता पूर्वक आबद्ध और उज्ज्वल हैं, जिसके केश चिकने और कोमल हैं, वैसी यह नारी लात मारने योग्य कदापि नहीं है। जिसकी हथेली में कमल, चक्र, ध्वजा, शंख, मन्दिर और मगर के चिह्न हैं, वह शुभलक्षणा नारी पैरों से ठुकरायी जाय, यह कदापि उचित नहीं है। जिसके शरीर में चार आवर्त हैं और व सब प्रदक्षिणभाव से सुशोभित हैं, जिसक अंग समान (सुडौल), शुभ लक्षणों सक सम्पन्न और स्किन्ध हैं, वह लात माने योग्य नहीं है। जिसके हाथों, पैरों और दाँतों में छिद्र दिखायी देते हैं, वह कमलदललोचना कन्या पैरों से ठोकर मारने योग्य कैसे हो सकती है ? यह समसत शुभ लक्ष्णों से सम्पन्न हैं। इसका मुख पूर्णचन्द के समान मनोहर है। यह सुन्दर रूपवाली सुमुखी नारी पैरों से ठुकराने योग्य नहीं है। यह देवांगना के समान सौभाग्यशालिनी, इन्द्राणी के समान शोभासम्पन्न तथा अप्सरा के समान सुन्दर रूप धारण करने वाली है। यह लात मारने योग्य कदापि नहीं है। मनुष्य-जाति में तो ऐसी सती-साध्वी स्त्री सुलभ ही नहीं होती। इसके सम्पूर्ण अंग निर्दोष हैं। हम तो इसे मानवी नहीं; देवी मरनते हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! जब इस प्रकार द्रौपदी को देखकर सभासद उसकी प्रशंसा कर रहे थे, उस समय कीचक के प्रति क्रोध के कारण युधिष्ठिर के ललाट पर पसीना आ गया।

युधिष्ठिर का संवाद

तदनन्तर सुन्दरी द्रौपदी लंबी साँस खींचकर नीचा मुख किये भूमि पर खड़ी हो गयी और राजा युधिष्ठिर को कुछ कहने के लिये उद्यत देख वह स्वयं मौन रह गयी। तब उन कुरुनन्दन ने अपनी प्यारी रानी से इस प्रकार कहा- ‘सैरन्ध्री! अब तू यहाँ न ठहर। रानी सुदेष्णा के महन में चली जा। ‘पति का अनुसरण करने वाली वीरपत्नियाँ सब क्लेश चुपचाप उठाती हैं, वे साध्वी देनियाँ पतिलोक पर विजय पा लेती हैं। ‘मैं समझता हूँ, तुम्हारे सूर्य के समान तेजस्वी पति गन्धर्वगण अभी क्रोध करने का अवसर नहीं देखते; इसीलिये तुम्हारे पास दौड़कर नहीं आ रहे हैं।[5]‘सुन्दर केशप्रान्त वाली सैरन्ध्री! तुम मोक्षधर्म से सम्बन्ध रखने वाली बातें सुनो। धर्मशास्त्र के अनुसार कुलवती स्त्रिायों का धर्म इस प्रकार देखा गया है। ‘स्त्री के लिये न कोई यज्ञ है, न श्राद्ध है और न उपवास का ही विधान है। स्त्रियों के द्वारा जो पति की सेवा होती है, वही उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाली है। ‘कुमारावस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र नारी की रक्षा करता है। स्त्री को कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिये। ‘पतिव्रता स्त्रियाँ नाना प्रकार के क्लेश सहकर तथा शत्रुओं द्वारा अपमानित होकर भी अपने पतियों पर कभी क्रोध नहीं करतीं। ‘इस प्रकार अनन्तभाव से पति की शुश्रुषा करने वाली स्त्रियाँ पुण्यलोकों को प्राप्त कर लेती है। सैरन्ध्री! तुम्हारे पतियों के कुपित होने पर तो वृत्रहनता इन्द्र भी युद्ध में उनका सामना नहीं कर सकते। ‘विशाललोचने! यदि उनके साथ तेरी कोई शर्त हुई हो, तो उसे याद कर ले। क्षमाशीले! क्षमा सबसे उत्तम धर्म है। ‘क्षमा सत्य है, क्षमा दान है, क्षमा धर्म है और क्षमा ही तप है। क्षमाशील मनुष्यों के लिये ही यह लोक और पालोक है। जिसके दो (उत्तरायण और दक्षिणायन) अंश हैं, बारह (मास) अंग हैं, चौबीस (पक्ष) पर्व हैं और तरन सौ साठ (दिन) अरे हैं, उस कालचक्र को पूर्ण होने में यदि एक मास की कमी रह गयी हो; तो कौन उसकी प्रतीचा न करके क्षमा का त्याग कर सकता है ?’

वैयाम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इतना कहने पर भी जब द्रौपदी वहाँ खड़ी ही रह गयी, तब धर्मराज ने पुनः उससे कहा- ‘सैरन्ध्री! तू अवसर को नहीं पहचानती; इसीलिये नटी की भाँति राजसभा में रो रही है और द्यूतक्रीड़ा में लगे हुए मत्स्यराजकुमारों के खेलने में विघन डालती है।‘सैरन्ध्री! जाओ, गन्धर्व तुम्हारा प्रिय करेंगे। जिसने तुम्हारा अपकार किया है, उसे मारकर तुम्हारा दुःख दूर कर देंगे’।

सैरन्ध्री का संवाद

सैरन्ध्री बोली- जिनके बड़े भाई सदा जूआ खेला करते हैं, उन दयालु गन्धर्वों के लिये मैं अत्यन्त धर्मपरायणा रहूँगी। मेरा अपकार करने वाले दुरात्मा उन सबके लिये वध्य हों।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! यों कहकर सुन्दर कटिप्रदेश वाली द्रौपदी तीव्र गति से रानी सुदेष्णा के महल को चली गयी। उसके केश खुले हुए थे और क्रोध से उसकी आँखें लाल हो रही थीं। उस समय रोती हुई द्रौपदी का मुख इस प्रकार सुशोभित हो रहा था, मानो आकाश में मेघमाला के आवरण से मुक्त चन्द्रबिम्ब शोभा पा रहा हो। समसत अंगों में धूलि से धूसरित गजराजवधू की भाँति शोभा पाने वाली तथा हाथी की सूँड के समानजाँघों वाली द्रौपदी स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य करके राजसभा से अन्तःपुर में चली गयी। उसके स्तन एक दूसरे से सटे हुए थे, तथा नेत्र मृगशावकों के समान चन्चल हो रहे थे। वह कीचक के हाथ से छूटकर शोक और दु:ख से इस प्रकार मलिन हो रही थी, मानो चन्द्रमा की प्रभा वर्षाकाल के मेघों से आच्छादित हो गयी हो। जिसके लिये समस्त पाण्डव अपने प्राण तक दे सकते थे, उसी कृष्णा को उस दशा में देखकर भी धर्मात्मा पाण्डव क्षमा धारण किये बैठे थे। जैसे समुद्र अपने तट की सीमा का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार वे अज्ञातवास के लिये स्वीकृत समय का अतिक्रमण नहीं कर रहे थे।

सुदेष्णा द्वारा द्रौपदी से विलाप का कारण पूछना

सुदेष्णा ने पूछा- वरारोहे! तुम्हें किसने मारा है ? शोभने! तू क्योे रोती है ? भद्रे! आज किसका सुचा समाप्त हो गया है? किसने तुम्हारा अपराध किया है ? कमल के समान कमनीय, सुन्दर दाँत, ओठ, नेत्र और नासिका से सुशोभित तथा पूर्णचन्द्र के समान कान्तिमान तुम्हारा यह मनोहर मुख ऐसा (मलिन) क्यों हो रहा है ? तुम रोती हुई अपने मुख पर बहे हुए अश्रुओं को पोंछ रही हो। काली पुतली वाले सरल नेत्रों से सुशोभित, बिम्बफल के समान अरुण अधरों से उपलक्षित और अत्यन्त मनोहर प्रभा से प्रकाशित तुम्हारा मुख इस समय आँसू क्यों गिरा रहा है ?

कृष्णा एवं सुदेष्णा का वार्तालाप

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब कृष्णा ने लंबी साँसें खींचकर कहा- ‘तुम सब कुछ जानती हुई भी मुझसे क्या पूछ रही हो ? स्वयं ही मुझे अपने भाई के पास भेजकर अब इस प्रकार की बातें क्यों बना रही हो ? द्रौपदी फिर बोली- मैं तुम्हारे लिये मदिरा लेने गयी थी। वहाँ कीचक ने राजसभा में महाराज के देखते-देखते मुझ पर प्रहार किया है; ठीक उसी तरह, जैसे कोई निर्जन वन में किसी असहाय अबला पर आघात करता हो।

सुदेष्णा ने कहा- सुन्दर लटों वाली सुन्दरी! यदि तुम्हारी सम्मति हो, तो मैं कीचक को मरवा डालूँ; जो काम से उन्मत्त होकर तुम जैसी दुर्लभ देवी का अपमान कर रहा है।[6]

सैरन्ध्री बोली - महारानी! उसे दूसरे ही लोग मार डालेंगे, जिनका कि अपराध वह कर रहा है। मैं तो समझती हूँ, अब वह निश्चय ही यमलोक की यात्रा करेगा। रानी! आज तुम अपने भाई के लिये शीघ्र ही जीवित श्राद्ध कर लो। उसके लिये आवश्यक दान ले लो। साथ ही उसे आँख भरकर देख लो। मेरा विश्वास है कि अब उसके प्राण नहीं रहेंगे। मेरे पाँच धर्मात्मा पतियों में से एक अत्यन्त दुःसह एवं अमर्षशील वीर है। वे कुपित होने पर इस रात में ही इस संसार को मनुष्यों से शून्य कर सकते हैं। परंतु इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वे गन्धर्व न जाने क्यों अभी तक क्रोध नहीं कर रहे हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! रानी सुदेष्णा से ऐसा कहकर दुःख से मोहित हुई सैरन्ध्री ने कीचक के वध के लिये व्रत की दीक्षा ग्रहण की। दूसरी स्त्रियों ने उससे प्रार्थना की। रानी सुदेष्णा ने भी उसे बहुत मनाया; तथापि न वह स्नान करती, न भोजन करती और न अपने शरीर की धूल ही झाड़ती थी। उसका मुँह रक्त से भींगा हुआ था, आँखों में रुलाई के आँसू भरे हुए थे। उसे इस प्रकार शोक से संतप्त होकर रोती देख सब स्त्रियाँ मन-ही-मन कीचक के वध की इच्छा करने लगी।

जनमेजय बोले- विप्रवर! संसार की युवतियों में श्रेष्ठ एवं पतिव्रता महाभागा द्रौपदी को कीचक ने लात मार दी; इससे वह महान् दुःख में डूब गयी। अहो! यह कितने कष्ट की बात है। जिस समय सिन्धुराज जयद्रथ ने बलपूर्वक उसका अपहरण किया था, उस समय उसने अपने पतियों की बहिन दःशला का सम्मान करते हुए वह कष्ट सह लिया और शुभलक्ष्णा सिन्धुराज को कोई शाप नहीं दिया। परंतु जब दुरात्मा कीचक ने उसका तिरस्कार किया और उसे लात से मारा, उस समय महाभागा कृष्णा ने उस दुष्ट को शाप क्यों नहीं दे दिया ? देवी द्रौपदी तेज की राशि थी।
वह धर्मज्ञा और सत्यवादिनी थी। उसके जैसी तेजस्विनी स्त्री अपने केश पकड़ लिये जाने पर असमर्थ की भाँति चुपचाप सह लेगी, यह सम्भव नहीं है। यदि उसने सह लिया, तो इसका कोई छोटा कारण नहीं होगा। साधुशिरोमणे! मैं वह कारण सुनना चाहता हूँ।

कीचक की उत्पत्ति का वर्णन

कृष्णा के क्लेश की बात सुनकर मेरा मन अत्यन्त व्यथित हो रहा है। मुने मत्स्यराज का साला दुष्ट कीचक किसके कुल में उत्पन्न हुआ था ? असैा वह बल से उन्मत्त क्यों हो गया था? वैशम्पायन जी ने कहा - कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाला 1893 नरेश! तुम्हारा उठाया हुआ यह प्रश्न ठीक है। मैं यह सब विस्तार पूर्वक बताऊँगा। राजन्! क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता से उत्पन्न हुआ बालक ‘सूत’ कहलाता है। प्रतिलोमसंकर जातियों में अकेली यह सूत जाति ही द्विज कही गयी है। द्विजोचित कर्मों से युक्त उस सूत को ही रथकार भी कहते हैं। इसे क्षत्रिय से हीन और वैश्य से श्रेष्ठ बताते हैं। राजन्! पहले के नरेशों ने सूतजाति के साथ भी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया है, परंतु उन्हें राजा की उपाधि नहीं प्राप्त होती थी। उनके लिये सूतों के नाम से सूतराज्य ही नियत कर दिया गया था। वह राज्य सूतजाति के एक पुरुष ने किसी क्षत्रिय राजा की सेवा करके ही प्राप्त किया था। सुप्रसिद्ध केकय नामक राजा सूतों के ही अधिपति थे। उनका जन्म किसी क्षत्रिय कन्या के गर्भ से हुआ था। वे सारथि कर्म में अनुपम थे। कुरुश्रेष्ठ! उनके मालवी के गर्भ के गर्भ से कई पुत्र उत्पन्न हुए। प्रभो! उन पुत्रों में कीचक ही सबसे बड़ा था। राजा केकय की दूसरी रानी भी मालवकन्या ही थी। उसके गर्भ से चित्रा नाम वाली कन्या उत्पन्न हुई, जो समसत कीचकबन्धुओं की छोटी बहिन थी।[7]

उसी को सुदेष्णा भी कहते हैं। वही आगे चलकर महाराज विराट की प्यारी पटरानी हुई। विराट की बड़ी रानी कोसलदेश की राजकुमारी सुरथा, जो श्वेत की जननी थी, उसकी मृत्यु हो जाने पर केकय नरेश ने अपनी कन्या सुदेष्णा का विवाह मत्स्यराज विराट के साथ प्रसन्नतापूर्वक कर दिया। सुदेष्णा को महारानी के रूप में पाकर राजा विराट का दृःख दूर हो गया। जनमेजय! केकयकुमारी रानी सुदेष्णा ने राजा विराट से अपने कुल की वृद्धि के लिये उत्तर और उत्तरा नामक दो संतानों को उत्पन्न किया। राजन! कीचक अपनी मौसी की बेटी सती-साध्वी सुदेष्णा की प्रेमपूर्वक परिचर्या करता हुआ विराट के यहाँ सुखपूर्वक रहने लगा। उसके सभी पराक्रमी भाई कीचक के ही प्रेमी भक्त थे; अतः वे भी विराट के ही बल और कोष को बढ़ाते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ रहने लगे। राजन! कालेय नामक दैत्य ही, जो प्रायः इस भूमण्डल में विख्यात थे, कीचकों के रूप में उत्पन्न हुए थे। कातेयों में बाण सबसे बड़ा था। वही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न, भयंकर पराक्रमी और महाबली कीचक हुआ, जो धर्म की मर्यादा तोड़ने और मनुष्यों के भय को बढ़ाने वाला था।। उस बलोन्मत्त कीचक की सहायता पाकर, जैसे इन्द्र दानवों पर सहायता पाते थे, उसी प्रकार राजा विराट ने भी समसत शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। 1894 मेखल, त्रिगर्त, दशार्ण, कशेरुक, मालव, यवन, पुलिन्द, काशी, कोसल, अंग, वंग, कलिंग, तंगण, परतंग, मलद, निषध, तुण्डिकेर, कोंकण, करद, निषिद्ध, शिव, दुश्छिल्लिक तथा अन्य नाना जनपदों के स्वामी अनेक शूरवीर नरेश रणभूमि में कीचक से पराजित हो दसों दिशाओं में भाग गये। ऐसे पराक्रमसम्पन्न कीचक को, जो संग्राम में दस हजार हाथियो का बल रचाता था, राजा विराट ने अपना सेनापति बना लिया। विराट के दस भाई ऐसे थे जो दशरथनन्दन श्रीराम के समान शक्तिशाली समझे जाते थे। वे भी इन प्रबलतर कीचक बन्धुओं का अनुसरण करने लगे। ऐसे बल सम्पन्न कीचक, जो राजा विराट के साले लगते थे, शौर्य में अपना सानी नहीं रखते थे। वे महामना विराट के बड़े हितैषी थे। जनमेजय! इस प्रकार मैंने तुमसे कीचक के पराक्रम की सारी बातें बता दीं।

द्रौपदी द्वारा शाप न देने का कारण

अब यह सुन लो कि द्रौपदी ने उस शाप क्यों नहीं दिया ? क्रोध से तपस्या नष्ट होती है, इसीलिये ऋषि भी सहसा किसी को शाप नहीं देते हैं। द्रौपदी इस बात को अच्छी तरह जानती थी; इसीलिये उसने उसे शाप नहीं दिया। क्षमा धर्म है, क्षमा दान है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा यश है, क्षमा सत्य है, क्षमा शील है, क्षमा कीर्ति है, क्षमा सबसे उत्कृष्ट तत्त्व है, क्षमा पुण्य है, क्षमा तीर्थ है, क्षमा सब कुछ है; ऐसा श्रुति कथन है। यह लोक क्षमावानो का ही है। परलोक भी क्षमावानों का ही है। द्रौपदी यह सब कुछ जानती थी, इसलिये उसने क्षमा का ही आश्रय लिया। भरतनन्दन! क्षमाशील एवं धर्मात्मा पतियों का मत जरनकर विशाल नेत्रों वाली सती साध्वी द्रौपदी ने समर्थ होते हुए भी कीचक को शाप नहीं दिया। समस्त पाण्डव भी द्रौपदी की दुरवस्था देखकर दुचाी हो समय की प्रतीचा करते हुए क्रोधाग्नि में जलते रहे। महाबाहु भीमसेन तो कीचक को तत्काल मार डालने के लिये उद्यत थे; परंतु जैसे वेला (तट की सीमा) महासागर के वेग को रोके रखती है, उसी प्रकार धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने उन्हें रोक दिया। वे मन में क्रोध को रोककर दिन-रात लंबी साँसें खींचते रहते थे। उस दिन पाकशाला में जाकर वे रात में बड़े कष्ट से सोये।[8]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-13
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 14-21
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 22
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 23-37
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 38-42
  6. महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 श्लोक 43-50
  7. महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 भाग-2
  8. महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 भाग-3

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पांडवप्रवेश पर्व
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गोहरण पर्व
दुर्योधन को उसके गुप्तचरों द्वारा कीचकवध का वृत्तान्त सुनाना | दुर्योधन का सभासदों से पांडवों का पता लगाने हेतु परामर्श | द्रोणाचार्य की सम्मति | युधिष्ठिर की महिमा कहते हुए भीष्म की पांडव अन्वेषण के विषय में सम्मति | कृपाचार्य की सम्मति और दुर्योधन का निश्चय | सुशर्मा का कौरवों के लिए प्रस्ताव | त्रिगर्तों और कौरवों का मत्स्यदेश पर धावा | पांडवों सहित विराट की सेना का युद्ध हेतु प्रस्थान | मत्स्य तथा त्रिगर्त देश की सेनाओं का युद्ध | सुशर्मा द्वारा विराट को बन्दी बनाना | पांडवों द्वारा विराट को सुशर्मा से छुड़ाना | युधिष्ठिर का अनुग्रह करके सुशर्मा को मुक्त करना | विराट द्वारा पांडवों का सम्मान | विराट नगर में राजा विराट की विजय घोषणा | कौरवों द्वारा विराट की गौओं का अपहरण | गोपाध्यक्ष का उत्तरकुमार को युद्ध हेतु उत्साह दिलाना | उत्तर का अपने लिए सारथि ढूँढने का प्रस्ताव | द्रौपदी द्वारा उत्तर से बृहन्नला को सारथि बनाने का सुझाव | बृहन्नला के साथ उत्तरकुमार का रणभूमि को प्रस्थान | कौरव सेना को देखकर उत्तरकुमार का भय | अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन देकर रथ पर चढ़ाना | द्रोणाचार्य द्वारा अर्जुन के अलौकिक पराक्रम की प्रशंसा | अर्जुन का उत्तर को शमीवृक्ष से अस्त्र उतारने का आदेश | उत्तर का शमीवृक्ष से पांडवों के दिव्य धनुष आदि उतारना | उत्तर का बृहन्नला से पांडवों के अस्त्र-शस्त्र के विषय में प्रश्न करना | बृहन्नला द्वारा उत्तर को पांडवों के आयुधों का परिचय कराना | अर्जुन का उत्तरकुमार को अपना और अपने भाइयों का यथार्थ परिचय देना | अर्जुन द्वारा युद्ध की तैयारी तथा अस्त्र-शस्त्रों का स्मरण | अर्जुन द्वारा उत्तरकुमार के भय का निवारण | अर्जुन को ध्वज की प्राप्ति तथा उनके द्वारा शंखनाद | द्रोणाचार्य का कौरवों से उत्पात-सूचक अपशकुनों का वर्णन | दुर्योधन द्वारा युद्ध का निश्चय | कर्ण की उक्ति | कर्ण की आत्मप्रंशसापूर्ण अहंकारोक्ति | कृपाचार्य का कर्ण को फटकारना और युद्ध हेतु अपना विचार बताना | अश्वत्थामा के उद्गार | भीष्म द्वारा सेना में शान्ति और एकता बनाये रखने की चेष्टा | द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन की रक्षा के प्रयत्न | पितामह भीष्म की सम्मति | अर्जुन का दुर्योधन की सेना पर आक्रमण और गौओं को लौटा लाना | अर्जुन का कर्ण पर आक्रमण और विकर्ण की पराजय | अर्जुन द्वारा शत्रुंतप और संग्रामजित का वध | कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण का पलायन | अर्जुन द्वारा कौरव सेना का संहार | उत्तर का अर्जुन के रथ को कृपाचार्य के पास लेना | अर्जुन और कृपाचार्य का युद्ध देखने के लिए देवताओं का आगमन | कृपाचार्य और अर्जुन का युद्ध | कौरव सैनिकों द्वारा कृपाचार्य को युद्ध से हटा ले जाना | अर्जुन का द्रोणाचार्य के साथ युद्ध | द्रोणाचार्य का युद्ध से पलायन | अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ युद्ध | अर्जुन और कर्ण का संवाद | कर्ण का अर्जुन से हारकर भागना | अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन | अर्जुन से दु:शासन आदि की पराजय | अर्जुन का सब योद्धाओं और महारथियों के साथ युद्ध | अर्जुन द्वारा कौरव सेना के महारथियों की पराजय | अर्जुन और भीष्म का अद्भुत युद्ध | अर्जुन के साथ युद्ध में भीष्म का मूर्च्छित होना | अर्जुन और दुर्योधन का युद्ध | दुर्योधन का विकर्ण आदि योद्धाओं सहित रणभूमि से भागना | अर्जुन द्वारा समस्त कौरव दल की पराजय | कौरवों का स्वदेश को प्रस्थान | अर्जुन का विजयी होकर उत्तरकुमार के साथ राजधानी को प्रस्थान | विराट की उत्तरकुमार के विषय में चिन्ता | उत्तरकुमार का नगर में प्रवेश और प्रजा द्वारा उनका स्वागत | विराट द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार और क्षमा-प्रार्थना | विराट का उत्तरकुमार से युद्ध का समाचार पूछना | विराट और उत्तरकुमार की विजय के विषय में बातचीत | अर्जुन का विराट को महाराज युधिष्ठिर का परिचय देना | विराट को अन्य पांडवों का परिचय प्राप्त होना | विराट का युधिष्ठिर को राज्य समर्पण और अर्जुन-उत्तरा विवाह का प्रस्ताव | अर्जुन द्वारा उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में ग्रहण करना | अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह | विराट पर्व श्रवण की महिमा

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