पितामह भीष्म की सम्मति

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 52 में पितामह भीष्म की सम्मति का वर्णन हुआ है[1]-

भीष्म द्वारा दुर्योधन को समझाना संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी ने कहा - कला, काष्ठ, मुहूर्त, दिन, मास, पक्ष, नक्षत्र, ग्रह, ऋतु और संवत्सर - ये सब ऐ दूसरे से जुड़ते हैं। इस तरह काल के इन छोटे छोटे विभागों द्वारा यह सम्पूर्ण कालचक्र चल रहा है। इन पक्ष-मास आदि के समय के बढ़ने घटने से और ग्रह नक्षत्रों की गति के व्यतिक्रम से हर पाँचवें वर्ष में दो महीने अधिमास के बढ़ जाते हैं। इस प्रकार इन तरह वर्षों के पूर्ण होने के पश्चात् भी पाण्डवों के पाँच महीने बारह दिन और अधिक बीत चुके हैं। ऐसा मेरा विचार है [2] इन पाण्डवों ने जो जो प्रतिज्ञाएँ की थीं, उन सबका यथावत् पालन किया है; अतएव इस बात को अच्छी तरह जानकर ही अर्जुन यहाँ आये हैं। सभी पाण्डव महात्मा हैं और सभी धर्म तथा अर्थ के ज्ञाता हैं। जिनके नेता राजा युधिष्ठिर हैं, वे धर्म के विषय में कैसे कोई अपराध कर सकते हैं ? कुन्ती के पुत्र लोभी नहीं हैं। उन्होंने तपस्या आदि कठिन कर्म किये हैं। वे अधर्म या अनुचित उपाय से ( धर्म को गँवाकर ) केवल राज्य लेने के इच्छुक नहीं हैं ? कुरुकुल को आनन्द देने वाले पाण्डव उसी समय पराक्रम करने में समर्थ थे, किंतु वे धर्म के बन्णन में बँधे थे; इसलिये क्षत्रिय व्रत से विचलित नहीं हुए। यदि कोई अर्जुन को असत्यवादी कहेगा तो वह पराजय को प्राप्त होगा। कुन्ती के पुत्र मौत को गले लगा सकते हैं, किंतु किसी प्रकार असत्य का आश्रय नहीं ले सकते। नरश्रेष्ठ पाण्डव समय आने पर अपने पाने योग्य भाग या हक को भी नहीं छोड़ सकते, भले ही वज्रधारी इन्द्र उस वस्तु की रक्षा करते हों। पाण्डवों को ऐसा ही पराक्रम है। इस समय रण भूमि में समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन के साथ हमें युद्ध करना है। इसलिये जगत में साधु पुरुषों द्वारा आचरित जो कल्याणकारी उपाय है, उसे शीघ्र करना चाहिये, जिससे तुम्हारा यह गोधन शत्रु के हाथ में न जाये। कुरुनन्दन! राजेन्द्र! मैं युद्ध में कभी एकसा नहीं देखता कि किसी एक पक्ष की ही सफलता अनिवार्य हो। लो, अर्जुन आ पहुँचे हैं। संग्राम छिड़ जाने पर किसी न किसी पक्ष को लाभ या हानि, जय अथवा पराजय अवश्य प्राप्त होते हैं, यह सदा देखा गया है। इसमें संशय की कोई बात नहीं है। अतः राजेन्द्र! तुम युद्धोचित कर्तव्य का पालन करो अथवा धर्म के अनुसार कार्य करो- बिना युद्ध के ही राज्य देकर संधि कर लो। जो कुछ करना हो जल्दी करो। अर्जुन अब सिर पर आ पहुँचे हैं। कुन्ती पुत्र अर्जुन अकेला ही समर भूमि में समूची पृथ्वी को भी दग्ध कर सकता है, फिर वह अपने सम्पूर्ण वीर बन्धुओं के साथ मिलकर केवल कौरवों को रण भूमि में नष्ट कर दे, यह कौन बड़ी बात है? अतः कुरुश्रेष्ठ! यदि आप ठीक समझें, तो पाण्डवों के साथ सन्धि कर लें।

दुर्योधन एवं भीष्म का संवाद

दुर्योधन ने कहा- किन्तु पितामह! मैं पाण्डवों को राज्य तो दूँगा ही नहीं,[3] युद्ध में उपयोगी जो भी कार्य हो, उसे ही शीघ्र पूरा किया जाय।

भीष्म ने कहा - कुरुनन्दन! यदि तुम्हें जचे, तो इस विषय में मेरी जो सलाह है, उसे सुनो। मैं सर्वथा कल्याण की ही बात कहूँगा। तुम सेना का एक चौथाई भाग लेकर शीघ्र ही हस्तिनापुर की ओर चल दो तथा दूसरी एक चौथाई टुकड़ी गौओं को साथ लेकर जाय। हम लोग आधी सेना साथ लेकर पाण्डु नन्दन अर्जुन का सामना करेंगे। मैं, द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य युद्ध का निश्चय करके आये हुए अर्जुन के साथ लड़ेंगे। फिर तो चाहे मत्स्य नरेश आ जायँ या साक्षात इन्द्र, जैसे वेला समुद्र को रोक देती है, उसी प्रकार मैं उन्हें आगे बढ़ने से राके रक्खूंगा। [4]

दुर्योधन द्वारा भीष्म की आज्ञा का अनुसरण

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! महात्मा भीष्म की कही हुई बात सबको पसंद आ गयी। फिर कौरवों के राजा दुर्योधन ने वैसा ही किया। पहले राजा दुर्योधन को और उसके बाद गोधन को भेजकर सेनापतियों को व्यवस्थित करके भीष्म जी ने सेना का व्यूह बनाने की तैयारी की।

भीष्म जी बोले - आचार्य! आप बीच में खड़े हों, अश्वत्थामा वाम भाग की रक्षा करें और शरद्वान पुत्र बुद्धिमान कृपाचार्य सेना के दक्षिण भाग की रक्षा करें। सूत पुत्र कर्ण कवच धारण करके सेना के आगे रहे और मैं पृष्ठभाग की रक्षा करता हुआ सम्पूर्ण सेना के पीछे स्थ्ति रहूँगा। सभी महारथी महाधनुर्धर और महाबली शूरवीर योद्धा यहाँ आये हुए पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन के साथ रण भूमि में यत्न पूर्वक युद्ध करें।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर कुरुश्रेष्ठ भीष्म ने समस्त सेनाओं का दुर्मेद्य व्यूह रचकर उसे वज्रगर्भ, ब्रीहिमुख तथा अर्धचक्रान्त मण्डल आदि के रूप में खड़ा किया और उसके पिछले भाग में भीष्म जी भी सुवर्णमय तालध्वज फहराकर हाथ में हथियार लिये खड़े हो गये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी।[5]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-10
  2. चान्द्र वर्ष तीन सौ चैवन दिनो का होता है और सौर वर्ष तीन सौ पैंसठ दिन पंद्रह घड़ी एवं कुछ पलों का हुआ करता है। इस हिसाब से तेरह सौर वर्षों में चान्द्र वर्ष के लगभग पाँच महीने अधिक हो जाते हैं, इन वर्षों में यदि छः बार अधिमास पड़ जायें, तो जिस तिथि को पाण्डवों का वनवास हुआ था, तेरहवें वर्ष की उसी तिथि तक तेरह वर्षों से पाँच महीने और बारह दिन अणिक हो सकते हैं। पाण्डवों ने सूर्य की संक्रांति के अनुसार वर्ष की गणना की थी; अतः उन्होंने अधिमास आदि के कारण बढ़े हुए महीनों और दिनों की संख्या को अलग नहीं माना। इसीलिये उनकी गणना में तेरह ही वर्ष हुए। भीष्म जी ने चान्द्र वर्ष की गणना का आश्रय लेकर बढ़े हुए महीनों और दिनों को भी गणना में ले लिया। अतः उनके हिसाब से उस दिन तक तेरह वर्ष पाँच मास बारह दिन अणिक हुए। यह कालभेद सौर और चान्द्र वर्षों की गणना के भेद से ही हुआ है। वास्तव में सूर्य की संक्रान्ति के हिसाब से उस समय तक पाण्डवों के तेरह वर्ष छः दिन हो चुके थे। चान्द्र वर्ष की गणना के अनुसार वही समय तेरह वर्ष पाँच माह बारह दिन हो गया।
  3. अतः उनसे सन्धि हो नहीं सकती तब फिर
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 52 श्लोक 11-19
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 52 श्लोक 20-23

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