- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 62 में अर्जुन का सब योद्धाओं और महारथियों के साथ युद्ध करने का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
कौरव सेना द्वारा अर्जुन का सामना करना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर कौरव सेना के सब महारथी मिलकर एक साथ संगठित होकर बड़ी सावधानी के साथ अर्जुन का सामना करने लगे। परंतु असीम आत्मबल से सम्पन्न कुन्ती पुत्र ने सब ओर सायकों का जाल सा बिछाकर कुहरे से ढके हुए पहाड़ों की तरह उन सब महारथियों को आच्छादित कर दिया। बड़े-बड़े गजराजों के चिग्घाड़ने, घोड़ों के हिनहिनाने और नगाड़ों तथा शंखों के बजाये जाने से जो शब्द हुए, उनके एकत्र मिलने से उस रण भूमि में भारी कोलाहल मच गया। पार्थ के सहस्रों बाण समुदाय मनुष्यों और घोड़ों के शरीरों को छेदकर और उनके लोहे के बने हुए कवचों को भी छिन्न भिन्न करके नीचे गिरा रहे थे। जैसे शरद् ऋतु के ( निर्मल आकाश में ) दोपहर का सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणें फैलाकर प्रकाशित होता है, उसी प्रकार संग्राम में पाण्डु नन्दन अर्जुन शत्रु सेना पर उतावली के साथ बाण वर्षा करते हुए सुशोभित होते थे। उस समय अत्यन्त भयभीत होकर रथी सैनिक रथों से कूदकर और घुड़सवार घोड़ों की पीठ से उछलकर जान लेकर भाग चले और पैदल योद्धा तो भूमि पर थे ही; उनहोंने भी ( डर के मारे ) इधर उधर की राह ली। महामना शूरवीर ताँबे और लोहे के बने हुए कवच जब बाणों से कटते थे, तब उनका बड़ा भारी शब्द होता था।
कुछ ही देर में युद्ध का सारा मैदान मूर्च्छित हुए सैनिकों के शरीरों से पट गया। तीखे बाणों की मार से जिनके प्राण निकल गये, उन हाथी सवारों, घुड़सवारों तथा रथ की बैठे से गिरे हुए मनुष्यों की लाशों से वहाँ की भूमि आच्छादित हो गयी थी। उस समय ऐसा जान पड़ता था, जैसे धनुष हाथ में लिये अर्जुन युद्ध भूमि में सब ओर नाचते फिर रहे हों। गाण्डीव की टंकार वज्र की गड़गड़ाहट को भी मात कर रही थी। उसे सुनकर समस्त सैनिक भयभीत हो उस महान संग्राम से भाग निकले। युद्ध के मुहाने पर कुण्डल और पगड़ी धारण किये असंख्य कटे हुए सिर पड़े दिखायी देते थे। कितने ही सोने के हार इधर उधर गिरे थे। अर्जुन के बाणों से मथित हुई लाशों से वहाँ की जमीन पट गयी थी। कितनी ही भुजाएँ कटकर गिरी थीं; जो अब भी ( मुट्ठी में दृढ़ता पूर्वक ) धनुष पकड़े हुए थीं। उन हाथों में बाजू बन्द, कड़े, अंगूठी आदि आभूषण सभी ज्यों के त्यों थे। इन सबसे आच्छादित होकर उस रण भूमि की विचित्र शोभा हा रही थी।
अर्जुन का सब योद्धाओं और महारथियों के साथ युद्ध
भरत श्रेष्ठ! बीच में तीखे बाणो से काटकर गिराये जाने वाले योद्धाओं के मस्तकों की श्रेणी आकाश से होने वाली पत्थरों की वर्षा सी जान पड़ती थी। भयानक पराक्रमी कुन्ती पुत्र अर्जुन तेरह वर्षों तक वन में हववश होकर रुके थे। अब ( उपयुक्त अवसर पाकर ) वे वीर पाण्डु कुमार धृतराष्ट्र के पुत्रों पर अपनी क्रोधाग्नि बरसाते तथा अपने रौद्र रूप का दर्शन कराते हुए रण भूमि में विचरने लगे। कौरव योद्धाओं का दग्ध करने वाले अर्जुन का वह पराक्रम देखकर सभी सैनिक दुर्योधन के सामने ही ठण्डे पड़ गये। भारत! विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन उस सेना को भयभीत करके ( सामने आये हुए ) महारथियों को भगाकर रण भूमि में चारों ओर घूमने लगे। पार्थ ने उस समय वहाँ खून की नदी बहा दी; जो बड़ी भयंकर थी। उसमें जल की जगह रक्त की धारा बहती थी तथा रक्त की ही तरंगें उठती थीं। हड्डियाँ ही उसमें सेवार बनकर छा रही थी। जान पड़ता था, कि प्रलय काल में साक्षात काल ने ही उसका निर्माण किया हो। उसमें धनुष और बाण ऐसे बहते थे, मानों डोंगियाँ चल रही हों। उसका स्वरूप बड़ा भयानक लगता था।
केश उसमें सेवार और घास के समान प्रतीत होते थे। उसमें वीरों के कवच और पगडि़याँ भरी थीं। हाथी कछुओं और बड़े-बड़े जल हस्तियों के समान जान पड़ते थे। मेदा, चर्बी तथा रुधिर को बहाने वाली वह नदी महान भय को बढ़ाने वाली थी। उसकी स्थिति बड़ी भीषण थी। उस रौद्र रूपा नदी के तट पर ( रक्तभोजी) हिंसक जन्तु कोलाहल कर रहे थे। तीखे शस्त्र उसके भीतर बड़े-बड़े ग्राहों के समान जान पड़ते थे। मांसभोजी जीव जन्तु वहाँ निवास करते थे। मोतियों की मालाएँ लहरों के समान जान पड़ती थीं। विचित्र आभूषण उसमें उठते हुए जल के बुलबुले जैसे प्रतीत होते थे। बाणों के समूह बड़ी-बड़ी भँवरें थे। हाथी घडि़यालों से जान पड़ते थे; अतः उसके पार जाना अत्यन्त कठिन था। बड़े-बड़े रथ उसके भीतर विशाल टापू जैसे प्रतीत होते थे। शंख और नगाड़ों की आवाज ही उस नदी की कलकल ध्वनि थी। इस प्रकार अर्जुन ने वहाँ खून की दुर्लंघ्य नदी बहा दी। अर्जुन कब बाण हाथ में लेते, गाण्डीव धनुष पर रखते, कब उसकी प्रत्यन्चा खींचते और बाण छोड़ते हैं, यह कोई भी मनुष्य नहीं देख पाता था।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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