पांडवों सहित विराट की सेना का युद्ध हेतु प्रस्थान

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 31 में पांडवों सहित विराट की सेना का युद्ध हेतु प्रस्थान का वर्णन हुआ है[1]-

पाण्डवों का तेरहवाँ वर्ष बीतना

वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज! उन दिनों छद्मवेष में छिपकर उस श्रेष्ठ नगर में रहते और महाराज विराट के कार्य सम्पादन करते हुए अतुलित तेजस्वी महात्मा पाण्डवों का तेरहवाँ वर्ष भलीभाँति बीत चुका था। कीचक के मारे जाने पर शत्रुहनता राजा विराट कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के प्रति बड़ी आदरबुद्धि रखने और उनसे बड़ी बड़ी आशाएँ करने लगे थे।

सुशर्मा द्वारा विराट पेर आक्रमण

‘भारत! तदनन्तर तेरहवें वर्ष के अन्त में सुशर्मा ने बड़े वेग से आक्रमण करके विराट की बहुत सा गौओं को अपने अधिकार में कर लिया। इससे उस समय बड़ा भारी कोलाहल मचा। धरती की धूल उड़कर ऊँचे आकाश में व्याप्त हो गयी। शंख, दुन्दुभि तथा नगारों के महान शब्द सब ओर गूँज उठे। बैलों, घोड़ों, रथों, हाथियों तथा पैदल सैनिकों की आवाज सब ओर फैल गयी।। इस प्रकार इन सबके साथ आक्रमण करके जब त्रिगर्तदेशीय योद्धा मत्स्यराज के गोधन को लेकर जाने लगे, उस समय उन गौओं के रक्षकों ने उन सैनिकों को रोका। भारत! तब त्रिगर्तों ने बहुत सा धन लेकर उसे अपने अधिकार में करके शीघ्रगामी अश्वों तथा रथ समूहों द्वारा युद्ध में विजय का दृढ़ संकल्प लेकर उन गोरक्षकों का सामना करना आरम्भ किया। त्रिगर्तों की संख्या बहुत थी। वे हाथों में प्रास और तोमर लेकर विराट के ग्वालों को मारने लगे; तथापि गोसमुदाय के प्रति भक्तिभाव रखने वाले वे ग्वाले बलपूर्वक उन्हें रोके रहे। उन्होंने फरसे, मूसल, भिन्दिपाल, मुद्गर तथा ‘कर्षणा- नामक विचित्र शस्त्रों द्वारा सब ओर से शत्रुओं के अश्वो को मार भगाया। ग्वालों के आघात से अत्यन्त कुपित हो रथों द्वारा युद्ध करने वाले त्रिगर्त सैनिक बाणों की वर्षा करके उन ग्वालों को रणभूमि से खदेड़ने लगे। तब उन गौओं का रक्षक गोप, जिसने कानों में कुण्डल पहन रक्खे थे, रथ पर आरूढ़ हो तीव्र गति से नगर में आया और मत्स्यराज को देखकर दूर से ही रथ से उतर पड़ा। अपने राष्ट्र की उन्नति करने वाले महाराज विराट कुण्डल तथा अंगद (बाजूबन्द) धारी शूरवीर योद्धाओं से घिरकरमन्त्रियों तथा महात्मा पाण्डवों के साथ राजसभा में बैठे थे। ===विराट द्वारा उस समय उनके पास जाकर गोप ने प्रणाम करके कहा- ‘महाराज! त्रिगर्तदेश के सैनिक हमें युद्ध में जीतकर और भाई-बन्धुओं सहित हमारा तिसस्कार करके आपकी लाखों गौओं को हाँककर लिये जा रहा है। ‘राजेन्द्र! उन्हें वापस लेने-छुड़ाने की चेष्टा कीजिये; जिससे आपके वे पशु नष्ट न हो जायँ- आपके हाथों से दूर न निकल जायँ।’

विराट द्वारा युद्ध की तैयारी

यह सुनकर राजा ने मत्स्यदेश की सेना एकत्र की। उसमें रथ, हाथी, घोड़े और पैदल - सब प्रकार के सैनिक भरे थे और वह ध्वजा-पताकाओं से व्याप्त थी। फिर राजा तथा राजकुमारों ने पृथक्-पृथक् कवच धारण किये। वे कवच बड़े चमकीले, विचित्र और शूरवीरों के धारण करने योग्य थे। राजा विराट के प्रिय शतानीक ने सुवर्णमय कवच ग्रहण किया, जिसके भीतर हीरे और लोहे की जालियाँ लगी थीं। शतानीक से छोटे भाई का नाम मरिराक्ष था। उन्होंने सुवर्णपत्र से आच्छादित सुदृढ़ कवच धारण किया, जो सारा का सारा सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों को सहन करने में समर्थ फौलाद का बना हुआ था। मत्स्यदेश के राजा विराट ने अभेद्यकल्प नामक कवच ग्रहण किया, जो किसी भी अस्त्र-शस्त्र से कट नहीं सकता था। उसमें सूर्य के समान चमकीली सौ फूलियाँ लगी थीं, सौ भँवरें बनी थीं, सौ बिन्दु (सूक्ष्म चक्र) और सौ नेत्र के समान आकार वाले चक्र बने थे। इसके सिवा उसमें नीचे से ऊपर तक सौगन्धिक (कल्हार) जाति के सौ कमलों की आकृतियाँ पंक्तिबद्ध बनी हुई थीं। सेनापति सूर्यदत्त (शतानीक) ने पुष्ठभाग में सुवर्णजटित एवं सूर्य के समान चमकीला कवच पहन रखा था। विराट के ज्येष्ठ पुत्र वीरवर शंख ने श्वेत रंग का एक सुदृढ़ कवच धारण किया, जिसके भीतरी भाग में लोहा लगा था और ऊपर नेत्र के समान सौ चिह्न बने हुए थे। इसी प्रकार सैंकड़ों देवताओं के समान रूपवान् महारथियों ने युद्ध के लिये उद्यत हो अपने-अपने वैभव के अनुसार कवच पहन लिये। वे सबके सब प्रहार करने में कुशल थे।

उन महारथियों ने सुन्दर पहियों वाले विशाल एवं उज्ज्वल रथों में पृथक-पृथक सोने के बक्ष्तर धारण कराये हुए घोड़ों को जोता। मत्स्यराज के सुवर्णमय दिव्य रथ में, जो सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रहा था, उस समय बहुत ऊँची ध्वजा फहराने लगी। इसी प्रकार अन्य शूरवीर क्षत्रियों ने अपने-अपने रथों में यथाशक्ति सुवर्णमण्डित नाना प्रकार की ध्वजाएँ फहरायीं।

युधिष्ठिर का संवाद

जब रथ जोते जा रहे थे, उस समय कंक ने राजा विराट से कहा- ‘मैंने भी एक श्रेष्ठ महर्षि से चार मार्गों वाले धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की है, अतः मैं भी कवच धारण करके रथ पर बैठकर गौओं के पदचिह्नों का अनुसरण करूँगा। निष्पाप नरेश! यह बल्लव नामक रसोइया भी बलवान एवं शूरवीर दिखाई देता है, इसे गौओं की गणना करने वाले गोशालाध्यक्ष तनितपाल तथा अश्वों की शिक्षा का प्रबन्ध करने वाले ग्रन्थिक को भी रथों पर बिठा दीजिये। मेरा विश्वास है कि ये गौओं के लिये यु;द्ध करने से कदापि मुँह नहीं मोड़ सकते।’

विराट का संवाद

तदनन्तर मत्स्यराज ने अपने छोटे भाई शतानीक से कहा- ‘भैया! मेरे विचार में यह बात आती है कि ये कंक, बल्लव, तन्तिपाल और ग्रनिथक भी युद्ध कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है। ‘अतः इनके लिये भी ध्वजा और पताकाओं से सुशोभित रथ दो। ये भी अपने अंगों में ऊपर से दृढ़, किंतु भीतर से कोमल कवच धारण कर लें। फिर इन्हें भी सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र अर्पित करो। इनके अंग और स्वरूप वीराचित जान पड़ते हैं। इन वीर पुरुषों की भुजाएँ गजराज की सूँड़दध्ड की भाँति शोभा पाती हैं। ‘ये युद्ध न करते हों, यह कदापि सम्भव नहीं अर्थात ये अवश्य युद्धकुशल हैं। मेरी बुद्धि का तो ऐसा ही निश्चय है।’

शतानीक द्वारा विराट की आज्ञा का पालन

जनमेजय! राजा का यह वचन सुनकर शतानीक ने उतावले मन से कुन्तीपुत्रों के लिये शीघ्रतापूर्वक रथ लाने का आदेश दिया। सहदेव, राजा युधिष्ठिर, भीम और नकुल इन चारों के लिये रथ लाने की आज्ञा हुई। इस बात से पाण्डव बड़े प्रसन्न थे। तब राजभक्त सारथि महाराज विराट के बताये अनुसार रथों को शीघ्रतापूर्वक जोतकर ले आये। उसके बाद अनायास ही महान पराक्रम करने वाले पाण्डुपुत्रों को राजा विराट ने अपने हाथ से विचित्र कवच प्रदान किये, जो ऊपर से सुदृढ़ और भीतर से कोतल थे। उन्हें लेकर उन वीरों ने अपने अंगों में यथास्थान बाँध लिया।[2]

चारों पाण्डवों सहित राजा विराट की सेना का युद्ध के लिये प्रस्थान

शत्रुसमूह को रौंद डालने वाले वे नरश्रेष्ठ कुन्तीपुत्र घोड़े ते हुए रथों पर बैठकर बड़ी प्रसन्नता के साथ राजभवन से बाहर निकले। वे बड़े वेग से चले। उन्होंने अपने यथार्थ स्वरूप को अब तक छिपा रक्खा था। वे सबके सब युद्ध की कला में अत्यन्त निपुण थे। कुरुवंशशिरोमणि वे चारों महारथी कुन्तीपुत्र सुवर्णमण्डित रथों पर आरूढ़ हो एक ही साथ विराट के पीछे-पीछे चले। चारों भाई पाण्डव शूरवीर और सत्यपराक्रमी थे। उन वीरों ने अपने विशाल और सुदृढ़ धनुषों की डोरियों करे यथाशक्ति ऊपर खींचकर धनुष के दूसरे सिरे पर चढ़ाया। फिर सुन्दर वरूत्र धारण करके चन्दन से चर्चित हो उन समसत वीर पाण्डवों ने नरदेव विराट के आज्ञा से शीघ्रतापूर्वक अपने घोड़े हांक दिये। अच्छी तरह रथ का भार वहन करने वाले वे स्वर्णभूषित विशाल अश्व हाँके जाने पर श्रेणीबद्ध होकर उड़ते हुए पंक्षियों के समान दिखायी देने लगे।। जिनके गण्डस्थल से मद की धारा बहती थी, ऐसे भयंकर मतवाले हाथी तथा सुन्दर दाँतों वाले साठ वर्ष के मदवर्षी गजराज, जिन्हें युद्धकुशल महावतों ने शिक्षा दी थी, सवारों को अपनी पीठ पर वढ़ाये राजा विराट के पीछे-पीछे इस प्रकार जा रहे थे, मानो चलते-फिरते पर्वत हों। युद्ध की कला में कुशल, प्रसन्न रहने वाले तथा उत्तम जीविका वाले मत्स्यदेश के प्रधान-प्रधान वीरों की उस सेना में आठ हजार रथी, एक हजार हाथी सवार तथा साठ हजार घुड़सवार थे, जो युद्ध के लिये तैयार होकर निकले थे। भरतर्षभ! उनसे विराट की यह विशाल वाहिनी अत्यन्त सुशोभित हो रही थी। राजन्! उस समय गौओं के पदचिह्न देखती युद्ध के लिये प्रस्थित हुई विराट की वह श्रेष्ठ सेना अपूर्व शोभा पा रही थी। उसमें ऐसे पैदल सैनिक भरे थे, जिनके हाथों में मजबूत हथियार थे। साथ ही हाथी, घोड़े तथा रथ के सवारों से भी वह सेना परिपूर्ण थी।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-12
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 31 श्लोक 13-27
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 31 श्लोक 28-31

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