द्रोणाचार्य की सम्मति

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 27 में द्रोणाचार्य की सम्मति का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से द्रोणाचार्य की सम्मति के वर्णन की कथा कही है।[1]

द्रोणाचार्य की सम्मति

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर तत्त्वार्थदर्शी महापराक्रमी द्रोणाचार्य ने कहा- ‘पाण्डव लोग शूरवीर, विद्वान, बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, कृतज्ञ और अपने बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा मानने वाले उनके भक्त हैं। ऐसे महापुरुष न तो नष्ट ही होते हैं और न किसी से तिरस्कृत ही होते हैं। ‘उनमें धर्मराज तो नीति, धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले, भाइयों द्वारा पिता की भाँति सम्मानित, धर्म पर अटल रहने वाले, सत्यपरायण और भाइयों में सबसें श्रेष्ठ हैं।

राजन! उनके भाई भी अपने से बड़ों के अनुगामी और अपने महात्मा बन्धु श्रीमान अजात शत्रु युधिष्ठिर के भक्त हैं। धर्मराज भी सब भाइयों पर अत्यन्त स्नेह रखते है। ‘जो इस प्रकार आज्ञापालक, विनयशील और महात्मा हैं, ऐसे अपने छोटे भाइयों का नीतिज्ञ धर्मराज कैसे भला नहीं करेंगे? ‘अतः मैं अपनी बुद्धि और अनुभव की दृष्टि से यह देखता हूँ कि पाण्डव लोग अपने अनुकूल समय के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं; वे नष्ट नहीं हो सकते। ‘इस समय जो कुछ करना है, वह खूब सोच-विचारकर शीघ्र किया जाना चाहिये। इसमें विलम्ब करना ठीक नहीं है।

सभी विषयों में धैर्य रखने वाले उन पाण्डवों के निवास स्थान का ही ठीक-ठीक पता लगाना चाहिये। वे सभी शूरवीर और तपस्या से आवृत हैं, अतः उन्हें पाना कठिन है। पा लेने पर उन्हें पहचानना तो और भी कठिन है। ‘कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर शुद्धचित्त, गुणवान, सत्यवान, नीतिमान, पवित्र और तेज के पुन: हैं; अतः उन्हें पहचानना असम्भव है। आँखों से दीख जाने पर भी वे मनुष्य को मोह लेंगे- पहचाने नहीं जा सकेंगे। ‘इसलिये इन बातों को अच्छी तरह सोच समझकर ही हमें कोई काम करना चाहिये।’[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-10

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