कर्ण की आत्मप्रंशसापूर्ण अहंकारोक्ति

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 48 में कर्ण की आत्मप्रंशसापूर्ण अहंकारोक्ति का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से कर्ण की आत्मप्रंशसापूर्ण अहंकारोक्ति की कथा कही है।[1]

कर्ण द्वारा आत्मप्रंशसापूर्ण अहंकारोक्ति

कर्ण बोला- मैं आप सब आयुष्मानों को भयभीत एवं त्रस्त सा देखता हूँ। आपमें से किसी का मन युद्ध में नहीं लग रहा है एवं सभी चंचल दिखायी देते हैं। यदि यह मत्स्य देश का राजा हो अथवा यदि स्वयं अर्जुन आया हो, तो भी जैसे वेला समुद्र को रोक देती है, उसी प्रकार मैं भी इसे आगे बढ़ने से रोक दूँगा। मेरे धनुष से छूटकर सर्पों की भाँति आगे बढ़ने वाले और झुकी हुई गाँठ वाले बाण कभी अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होते। सुनहरी पाँख और तीखी नोक वाले बाण मेरे हाथों से छूटकर अर्जुन को ठीक उसी तरह, ढँक लेंगे; जैसे टिड्डियाँ पेड़ को आच्छादित कर देती हैं।

पाँख वाले बाणों को धनुष की प्रत्यन्चा पर चढ़ाकर भली-भाँति खींचने के पश्चात् मेरी दोनों हथेलियों का ऐसा शब्द होता है, जैसे दो नगाड़े पीटे गये हों। आज वह शब्द आप लोग सुनें। अर्जुन तेरह वर्षों तक वन में समाधि लगाता रहा है, किंतु उसका इस युद्ध में स्नेह है; अतः मुझ पर वह बाणों का प्रहार करेगा। कुन्ती नन्दन धनुजय गुणवान ब्राह्मण की भाँति मेरे लिये एक सुपात्र व्यक्ति है। अतः आज वह मेरे छोड़े हुए सहस्रों बाण समुदायों का दान स्वीकार करे। यह तीनों लोकों मे महान धनुर्धर के रूप में विख्यात है और मैं भी नरश्रेष्ठ अर्जुन से किसी बात में कम नहीं हूँ। इधर उधर दोनों ओर से छूटे हुए गीध की पाँखों से युक्त सुवर्णमय बाणों द्वारा आच्छादित हो आज आकाश जुगनुओं से भरा हुआ सा दिखायी देगा।

कर्ण का अर्जुन के साथ युद्ध वर्णन

मैं आज युद्ध में अर्जुन को मारकर पहले की हुई अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार दुर्योधन का अक्षय ऋण चुका दूँगा। आज बीच से कहकर इधर उधर बिखर जाने वाले पंख युक्त बाणों का आकाश में फतिंगों की भाँति उड़ना और गिरना देखो। यद्यपि अर्जुन महेन्द्र के समान तेजस्वी है, तो भी आज उसे उल्काओं [2] द्वारा गजराज की भाँति इन्द्र के वज्र की तरह कठोर स्पर्श वाले अपने बाणों ये पीड़ित कर दूँगा। जो रथियों से भी बढ़कर अतिरथी, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ औश्र शूरवीर है, उस कुन्ती पुत्र को आज मैं युद्ध में विवश करके उसी प्रकार दबोच लूँगा, जैसे गरुड़ा साँप को पकड़ लेता है। जो अग्नि की भाँति दुर्धर्ष है, खड्ग, शक्ति और बाण रूपी ईंधन से प्रज्वलित है और अपने शत्रु को भस्म कर रही है, उस अर्जुन रूपी जलती हुई आग को आज मैं महामेघ बनकर बुझा दूँगा। मेरे अश्वों का वेग ही पुरवैया हवा का काम करेगा। रथ समूह की घर्घराहट ही बादलों की गम्भीर गर्जना होगी और बाणों की धारा ही जलधारा का काम करेगी।[1]

आज मेरे धनुष से छूटे हुए सर्पों के समान विषैले बाण अर्जुन के शरीर में उसी प्रकार प्रवेश करेंगे, जैसे साँप बाँबी में घुसते हैं। कनेर के फूलों से व्याप्त पर्वत की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार मेरे तेज, सुनहरे पंख वाले, उज्ज्वल और झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा कुन्ती पुत्र अर्जुन को आच्छादित हुआ देखो। मुनिश्रेष्ठ परशुराम जी से मैंने जो अस्त्र प्राप्त किये हैं, उन अस्त्रों और अपने पराक्रम का आश्रय लेकर मैं इन्द्र से भी युद्ध कर सकता हूँ। अर्जुन की ध्वजा के अग्र भाग पर स्थित होने वाला वानर भयंकर गर्जना किया करता है, वह आज ही मेरे बाणों से मारा जाकर पृथ्वी पर गिर जाय।

शत्रु की ध्वजा में निवास करने वाले भूतगण भी मुझसे मारे जाकर जब चारों दिशाओं में भागने लगेंगे, उस समय उनके हाहाकार का शब्द स्वर्गलोक तक पहुँच जायगा। अर्जुन को रथ से गिराकर आज मैं दुर्योधन के हृदय में चिरकाल से चुभे हुए काँटे को जड़ सहित निकाल फेंकूँगा। पुरुषार्थ साधन में लगे हुए अर्जुन के घोड़े मार दिये जायँगे और वह रथहीन होकर केवल साँप की भाँति फुफकार मारता फिरेगा। कौरव लोग आज उसकी वह अवस्था भी देखें। कौरवों की इच्छा हो तो वे केवल गोधन लेकर यहाँ से चले जायँ अथवा अपने रथों पर बैठे रहकर अर्जुन के साथ मेरा युद्ध देखें।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-15
  2. मशालो
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 48 श्लोक 16-23

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