- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 54 में अर्जुन द्वारा शत्रुंतप और संग्रामजित के वध का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
अर्जुन का कौरवों पर प्रहार
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! शत्रुदल के वीरों का वध करने वाले कुन्ती नन्दन अर्जुन को इस प्रकार अमानुषिक पराक्रम करते देख शत्रुंतप नामक वीर उनके सामने आया। वह अर्जुन का पराक्रम न सह अपनी बाण वर्षा से पार्थ को पीड़ा देने लगा। कौरव सेना में विचरने वाले अर्जुन ने अतिरथी राजा शत्रुंतप के बाणों से घायल होकर उसे भी तुरंत पाँच बाणों से बींध डाला। फिर उसके सारथि को दस बाण मारकर यमलोक पहुँचा दिया। भरतश्रेष्ठ अर्जुन के बाण कवच छेदकर शरीर के भीतर घुस जाते थे। उनके द्वारा घायन होकर राजा शत्रुंतप के प्राण पखेरू उड़ गये और जैसे आँधी से उखड़ा हुआ वृक्ष पर्वत शिखर से गिरे, उसी प्रकार वह रथ से रण भूमि में गिर पड़ा। नरश्रेष्ठ वीरवर धनुजय के बाणों की मार खाकर कौरव सेना के कितने ही रेष्ठ वीर घायल हो इस प्रकार काँपने लगे, जैसे समयानुसार प्रचण्ड आँधी के वेग से बड़े-बड़े जंगलों के वृक्ष हिलने लगते हैं। कुन्ती पुत्र अर्जुन के द्वारा मारे गये बहुतेरे उत्कृष्ट नर वीर जो सुन्दर वेशभूषा से सुशोभित थे, प्राणशुन्य होकर पृथ्वी पर सो गये। जो वीर दूसरों को वसु ( धन ) देने वाले और वासुदेव ( इन्द्र ) के तुल्य पराक्रमी थे, वे भी कुंती नन्दन अर्जुन के द्वारा उस युद्ध में पराजित हो गये। उनमें से कुछ तो सोने के कवच पहने थे और कुछ लोगों ने काले लोहे के बख्तर बाँध रक्खे थे। वे उस युद्ध भूमि में पड़े हुए हिमालय प्रदेश के विशालकाय गजराजों के समान जान पड़ते थे। इस प्रकार संग्राम में शत्रुओं का संहार करने वाले गाण्डीवधारी वीर शिरोमणि नररत्न अर्जुन वहाँ सब दिशाओं में इस प्रकार विचरने लगे, मानो ग्रीष्म ऋतु में दावानल सम्पूर्ण वन को दग्ध करता हुआ चारों ओर फैल रहा हो।
अर्जुन द्वारा शत्रुंतप और संग्रामजित का वध
जैसे वसन्त ऋतु में ( तेज चलने वाली ) हवा पतझड़ के बिखरे पत्तों को उड़ाती और बादलों को छिन्न- भिन्न कर देती है, उसी प्रकार उस रण भूमि में रथ पर बैठे हुए अतिरथी वीर किरीटधारी अर्जुन शत्रुओं का संहार करते हुए विचरने लगे। उनके हृदय में दीनता का लेश मात्र भी नहीं था। वे सुन्दर किरीट और मालाओं से अलंकृत थे। उन्होंने लाल घोड़े वाले रथ पर बैठकर अपने सामने आये हुए कर्ण के भाई संग्रामजित के घोड़ों को मार डाला और एक बाण से उसके मस्तक को भी धड़ से अलग कर दिया। अपने भाई संग्रामजित के मारे जाने पर सुत पुत्र कर्ण ने कुपित हो पराक्रम दिखाने की इच्छा से अर्जुन और उत्तर पर इस प्रकार हठपूर्वक धावा किया, मानों कोई गजराज दो पर्वत शिखरों से भिड़ने चला हो अथवा कोई व्याघ्र किसी महाबली साँड़ पर टूट पड़ा हो।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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