- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 72 में अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
विराट द्वारा सगे सम्बन्धियों तथा वासुदेव को निमंत्रण भेजना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! महाराज विराट के ऐसा कहने पर कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर ने उचित अवसर जान मत्स्य नरेश और पार्थ के इस सम्बन्ध का अनुमोदन किया। जनमेजय! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर तथा राजा विराट ने अपने अपने सम्पूर्ण सुहृदों एवं सगे सम्बन्धियों को तथा भगवान वासुदेव को भी निमन्त्रण भेजा। पाँचों पाण्डवों का तेरहवाँ वर्ष तो पूर्ण हो ही चुका था, वे सब के सब राजा विराट के उपप्लव्य नामक नगर में आकर रहने लगे। पाण्डु नन्दन अर्जुन ने आनर्त देश से अभिमन्यु, भगवान वासुदेव तथा दशार्हवंश के अपने अन्य सम्बन्धियों को भी वहाँ बुलावा लिया। काशिराज और शैव्य दोनों युधिष्ठिर के बड़े प्रेमी थे। वे दोनों नरेश एक एक अक्षौहिणी सेना के साथ उपप्लव्य नगर में आये।
दिगज्जों का उपप्लव्य नगर में आगमन
महाबली राजा द्रुपद भी एक अक्षौहिणी सेना के साथ पधारे। उनके साथ द्रौपदी के पाँचों वीर पुत्र, कभी परास्त न होने वाले शिखण्डी और समस शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ एवं दुर्धर्ष धृरूटद्युम्न भी थे। इनके सिवा और भी अनेक राजा वहाँ पधारे, जो सबके सब एक एक अक्षौहिणी सेना के पालक, यज्ञकर्ता यज्ञों में अधिक से अधिक दक्षिणा देने वाले, वेद और अवभृथ ( यज्ञान्त ) स्नान से सम्पन्न, शूरवीर तथा पाण्डवों के लिये प्राण देने वाले थे। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ मत्स्य नरेश विराट ने उन्हें आया हुआ देख सेवकों, सेना और सवारियो सहित उन सबका विधि पूर्वक स्वागत सत्कार किया।
अभिमन्यु को अपनी पुत्री का वाग्दान करके राजा विराट बहुत प्रसन्न थे। तत्पश्चात् सब राजा लोग अपने अपने लिये नियत किये हुए स्थानों मे विश्राम के लिये पधारे। वहाँ वनमाला धारी वसुदेवनन्दन भगवान श्रीेकृष्ण, हलरूपी शस्त्र धारण करने वाले बलराम, हृदीक पुत्र कृतवर्मा, युयुधान नाम से प्रसिद्ध सात्यकि, अनाधृष्टि, अक्रूर, साम्ब और निशठ- ये सभी शत्रु संतापन वीर अभिमन्यु और उसकी माता सुभद्रा को साथ लिये वहाँ पधारे। जिन्होंने एक वर्ष तक द्वारका में निवास किया था, वे इन्द्रसेन आदि सारथि भी अच्छी तरह सब सामग्रियों से सम्पन्न किये हुए रथों सहित वहाँ आये थे। परम तेजस्वी वृष्णि वंश शिरोमणि भगवान वासुदेव के साथ दस हजार हाथी, उनसे दुगुने अर्थात बीस हजार घोड़े, दस हजार रथ और दस लाख पैदल सेना थी। इसके सिवा वृष्णि, अन्धक तथा भोजवंश के और भी बहुत से महा पराक्रमी वीर उनके साथ पधारे थे।
अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह
भगवान श्रीकृष्ण ने महात्मा पाण्डवों को दहेज या निमन्त्रण में बहुत सी दासियाँ, नाना प्रकार के रत्न और बहुत से वस्त्र पृथक पुथक भेंट किये। तत्पश्चात् मत्स्य और पार्थकुल के वैवाहिक सम्बन्ध का कार्य विधि पूर्वक सम्पन्न होने लगा। तदनन्तर कुन्ती पुत्र के साथ सम्बन्ध स्थापित करने वाले मत्स्य नरेश के महल में शंख, नगाड़े, गोमुख और डम्बर आदि भाँति-भाँति के बाजे बजने लगे। साथ ही उन्होंने खाने योग्य अन्न, भोज्य ओर पीने आदि की सामग्री भी प्रचुर मात्रा में प्रस्तुत की। गाने वाले, प्राचीन उपाख्यान सुनाने वाले, नट और वैतालिक सूत-मागध आदि के साथ उपस्थित हो पाण्डवों की स्तुति-प्रशंसा करने लगे। मत्स्य नरेश के रनिवास की सुन्दरी स्त्रियाँ रानी सुदेष्णा को आगे करके महारानी द्रौपदी के यहाँ आयीं। उन सबके सभी अंग बड़े मनोहर थे। उन सबने विशुद्ध मणिमय कुण्डल पहन रक्खे थे। वे सभी नारियाँ उत्तम वर्ण की थीं। रूपवती होने के साथ ही वे भाँति-भाँति के सुन्दर आभूषणों से विभूषित भी थीं; परंतु द्रुपद कुमार कृष्णा ने अपने दिव्य रूप, यश और उत्तम कान्ति से उन सबको तिरस्कृत कर दिया। उस समय राजकुमारी उत्तरा वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो महेन्द्र पुत्री जयन्ती सी सुशोभित हो रही थी। राज परिवार की स्त्रियाँ उसे आगे करके दोनों ओर से घेरकर वहाँ उपस्थित हुई। उस समय कुन्तीनन्दन अर्जुन ने अपने पुत्र सुभद्रा कुमार अभिमन्यु के लिये निर्दोष अंगों वाली विराट कुमारी उत्तरा को ग्रहण किया।
वहाँ इन्द्र के समान रूप धारण किये कुंती के पुत्र महाराज युधिष्ठिर भी खड़े थे। उन्होंने भी उत्तरा को पुत्र वधू के रूप में अंगीकार किया। इस प्रकार पार्थ ने उत्तरा को ग्रहण करके भगवान श्रीकृष्ण के सामने महामना अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह संस्कार सम्पन्न कराया। विवाह काल में विराट प्रज्वलित अग्नि में विधिवत होम कराकर ब्राह्मणों का पूजन करने के पश्चात् दहेज में वरपक्ष को वायु के समान वेगवान सात हजार घोड़े, दो सौ बड़े - बड़े हाथी तथा और भी बहुत सा धन भेंट किया। साथ ही राज पाट, सेना और खजाने सहित सब कुछ एवं अपने आपको भी उनकी सेवा में समर्पित कर दिया। विवाह सम्पन्न हो जाने पर धर्म पुत्र युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से जो धन मिला था, उसमें से बहुत कुछ ब्राह्मणों को दान किया। हजारों गौएँ, रत्न, नाना प्रकार के वस्त्र, आभूषण, मुख्य, मुख्य वाहन, शय्या, भोजन सामग्री तथा भाँति-भाँति की पीने योग्य उत्तम वस्तुएँ भी अर्पण कीं। जनमेजय! उस समय हजारों लाखों हृष्ट पुष्ट मनुष्यों से भरा हुआ मत्स्रू राज का वह नगर मूर्तिमान महोत्सव सा सुशोभित हो रहा था।[2]
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गोहरण पर्व
दुर्योधन को उसके गुप्तचरों द्वारा कीचकवध का वृत्तान्त सुनाना
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