भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गर्भ संकषर्ण
‘रोहिणी जीजी को गोकुल गये महीने भर से अधिक हो गये!’ देवकी जी के लिए यह दैनिक स्मरण की बात हो गयी थी। लगभग दो मास को गर्भ लेकर रोहिणी जी गोकुल गयी थीं और उनके जाने के दिन से ही देवकी जी दिन गिनने लगी थीं। आज तो उन्हें बहुत अधिक स्मरण हो रहा था रोहिणी जी का। ‘रोहिणी जी मथुरा से छिपकर कहीं चली गयीं।’ कंस के पास उसी दिन-जिस दिन रोहिणी जी गयीं, सूचना पहुँची थी। ‘अच्छा हुआ’ कंस ने कहा– ‘वह वसुदेव-देवकी से प्रतिदिन मिलती थी। प्राय: दिन भर उनके पास ही रहती थी। पता नहीं, क्या-क्या बातें करते थे वे। उसकी ओर से सशंक रहना पड़ता था। वह आशंका भी गयी।’ ‘वह क्यों गयी?’ एक मन्त्री ने कहा– ‘उसे कोई भय तो नहीं था। आतंकित भी नहीं किया गया था। कहीं वह अन्तर्वत्नी होकर तो नहीं गयी?’ ‘हो सकता है।’ कंस ने उपेक्षा की उस दिन– ‘ऐसा भी हो तो उनके शिशु से मुझे क्या भय था। वह यहाँ भी रहती तो उसके बच्चे से मुझे कोई शत्रुता नहीं थी।’ कंस ने तब भी उपेक्षा की जब उसके चर ने समाचार दिया ‘रोहिणी गोकुल में नन्द-गृह में हैं और माता बनने वाली है।’ लेकिन वह आज चौंका? उसे कारागार से लौटकर दासी ने समाचार दिया था– ‘देवकी फिर अन्तर्वत्नी है; किन्तु इस बार उसमें न आलस्य–तन्द्रा पहले के समान है, न वह उतनी दु:खी ही दिखती है। वसुदेव जी भी कुछ प्रसन्न ही लगे मुझे।’ ‘रोहिणी को उन्होंने नन्द-गृह भेज दिया।’ कंस बोला– ‘नन्द भाई हैं उनके और वे जानते हैं कि ब्रजाधिप से मैं उलझना नहीं चाहूँगा। गोप बहुत वीर जाति है और इनको एक बार छेड़ दो तो आजीवन शत्रुता नहीं भूलते। अब देवकी के इस गर्भ के सम्बन्ध में कोई योजना तो नहीं गढ़ी है वसुदेव ने?’ कंस ने उसी दिन से कारागार के रक्षक बढ़ा दिये। देवकी-वसुदेव के समीप जाने वाली दासियों में परिवर्तन किया। केवल कंस ही नहीं चौंका था। चौंकी तो देवी देवकी भी थीं। उन्होंने जब समझा कि उनके उदर में सन्तान है, वसुदेव जी से कहा था– ‘लगता है वह हठी हार गया। अन्तत: वह इस अभागिनी माता की कुक्षि में कितनी बार आता। इस बार न मुझे आलस्य लगता है, न तन्द्रा। मेरा शरीर भी मुझे बहुत हल्का-स्फूर्तिवान लगता है। कोई दूसरा ही भोला प्राण आया है इस बार। वह भी आयुहीन ही तो होगा।’ कंस का स्मरण आते ही देवकी जी अत्यन्त कातर हो उठती थीं। उनकी सहज प्रसन्नता काे यह चिन्ता आच्छादित किये रहती थी। वैसे उनमें एक विचित्र तेजस्विता लगने लगी थी। अनेक बार कंस की सेविका को भी लगा था कि देवकी की दृष्टि में अब दैन्य नहीं है। वे मुख से भले न बोलें, उनकी दृष्टि के संकेत में वह गौरव आ गया है जो महारानी की दृष्टि में भी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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