भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंस का कारागार
कंस के आदेश का पालन उसी समय हुआ। लेकिन महाराज उग्रसेन ने किसी सामग्री की इच्छा प्रकट नहीं की। उनके लिए सेवक अपनी आरे से ही नित्योपयोगी वस्तुएं ले गये। महाराज ने उसी दिन से भूमि-शयन का व्रत लिया। वे केवल कुशासन बिछाते थे। महाराज उग्रसेन ने कारागार को तपोवन बना लिया। महीने में अनेक व्रत वे निर्जल करने लगे। अनेक तिथियों में केवल एक बार दूध या थोड़े फल लेते थे। दिन में एक बार अल्प अन्नाहार वे कभी कदाचित ही ग्रहण करते थे। महाराज ने अपने सब कार्य स्वयं प्रारम्भ कर दिये। सेवकों की सेवा उन्होंने स्पष्ट अस्वीकार कर दी। व्रत, संयम और आराधना–महाराज उग्रसेन का जीवन तपस्वी का जीवन बन गया। राज्य के छिन जाने और कारागार में बन्दी होने का उन्हें कोई दु:ख नहीं था। केवल व्यथा थी उन्हें– ‘कुपुत्र का पिता बना मैं! मेरे पुत्र न हुए होते या होते ही मर गये होते–पुत्रों के कर्म में पिता का भाग होता है और कंस जो पिशाचों जैसे कर्म कर रहा है।’ प्रजा महाराज उग्रसेन को प्राणों के समान प्रिय थी। कारागार में भी सुप्रसन्न रहते यदि उन्हें विश्वास होता कि प्रजा सुखी रहेगी; किन्तु कंस–महाराज की यह व्यथा उस एकान्त में बढ़ती ही गयी थी। कैसी विडम्बना थी। कारागार के एक भाग में महाराज अपने पुत्र के कारण दारुण व्यथा भोग रहे थे और उसी कारागार के दूसरे भाग में जो दम्पत्ति थे, वे अपने अबोध शिशु की हत्या के कारण व्यथित थे। ‘मेरा लाल!’ देवी देवकी मूर्छा में अनेक बार चिल्ला उठी थीं– ‘भैया, वह निर्दोष है। उसे दे दो मुझे।’ वसुदेव जी ने उनका मस्तक अपने अंक में ले रखा था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या किया जाना चाहिये। देवकी जी के शरीर से निकला रक्त कक्ष की भूमि आर्द्र कर रहा था, पर उस समय तक वहाँ अन्धकार हो चुका था। शीघ्र ही परिचारिकायें आ गयीं। कक्ष को उन्होंने प्रकाशित किया। एक भाग स्वच्छ करके देवकी जी को वहाँ आसन पर लिटाया। उनका उपचार करने लगीं। वसुदेव जी शून्य दृष्टि से यह सब तटस्थ जैसे देखते रहे। ‘मेरा लाल! कुछ चेतना में आने पर बार-बार देवकी जी ने चीत्कार किया और फिर-फिर मूर्च्छित हुईं। कठिनाई से वसुदेव जी ने उन्हें सम्हाला– ‘देवि! वह तुम्हारा नहीं था।’ ‘हाय! उसने तो नेत्र भी नहीं खोले।’ मां की दारुण व्यथा का पार नहीं था– ‘उसने देखा भी नहीं कि उसे किस भाग्यहीना ने जन्म दिया है। वह तो सोता ही आया, सोता रहा और अनन्त निद्रा में सो गया।’ रात्रि-व्यतीत होनी थी; किन्तु इस दु:खी दम्पत्ति की विपत्ति-रात्रि तो बहुत लम्बी थी। वह अन्धकार जो उनके मानस पर छा गया था–बहुत देर लगी उसमें प्रकाश की किरण आने में। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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