भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरु-दक्षिणा
स्वामी! भयभीत सिंधु की सारी सरसता जैसे स्वेद बन जाएगी। कंपित कण्ठ–मैंने बालक का अपहरण नहीं किया। मैं अपने में डाले गए पदार्थों को भी पुलिन पर लौटा देता हूँ। मुझसे नहीं हुआ यह अपराध, किंतु मेरे भीतर एक दैत्य रहता है पञ्चजन। वह शंख रूपधारी असुर जल में ही विचरण करता है। वह कुछ करे–मैं विवश हूँ। मैं उससे पार नहीं पा सकता। मेरी तरंग को आवरण बना कर उसी ने बालक का हरण किया। वह मांसाशी है। श्रीकृष्ण को और कुछ सुनना नहीं है। बद्धञ्जलि सागर खड़ा रहा। पुलिन पर पड़े रहे उसके उपहार रत्न। श्याम ने अग्रज की ओर भी नहीं देखा। वे वैसे ही उठे और अगाध जल में कूद पड़े। कुछ क्षण मात्र में लगा उनको निकलने में। समुद्र उनके श्री अंग, वस्त्र आर्द्र करने का साहस कैसे करता। चंद्रोज्वल शंख–पाञ्चजन्य शंख था दक्षिण कर में। अग्रज के सम्मुख आकर बोले–असुर के शरीर से केवल यह मिला। उसे चीर कर द्विधा कर देने पर भी उसके उदर में गुरु पुत्र का कोई अवशेष नहीं दीखा। आप रथ पर विराजें। हमें संयमिनी चलना पड़ेगा। भद्र! तुम नेत्र बंद रखो। अश्वों को स्वच्छंद चलने दो। सारथि को आदेश दे दिया गया। संयमिनी–यमराज की पुरी। धरा पर कोई कैसे भी मरे, धर्मराज के यहाँ ही तो पहुँचेगा। करमवश कही जाय भी तो यमपुरी होकर ही जाएगा। जब कोई मर गया–उसका पता धरमराज के अतिरिक्त कहाँ मिल सकता है? श्रीकृष्ण का संकल्प–सयंमिनी कोई स्थलपुरी है कि वहाँ रथ और अश्व जाएंगे, किंतु जिनका संकल्प कोटि कोटि भुवन निर्माण करता है, वे इच्छा करें–रथ को संयमिनी के द्वार पर पहुँचने में क्षणार्ध लगा। दक्षिण दिशा के उन लोक भयंकर लोकपाल की महापुरी के द्वार पर पहुँच कर श्रीकृष्ण ने अधरों से पाञ्चजन्य लगाया और उनका शंखनाद गूँजने लगा। श्रीकृष्ण के मुख का शंखनाद–नरकों की महाज्वाला सहसा शांत हो गई। रुरु और महारूरू जैसे अत्यंत क्रूर प्राणी अचानक बहुत सीधे बन गए। तप्त शाल्मली, वज्रकण्टकादि सम्पूर्ण नरकों में नियुक्त यम किंकर चकित देखते रह गए एक दूसरे की ओर। यातना प्राप्त समस्त जीव तो एक साथ निकल गए और कहीं किसी दिव्य धाम चले गए। अब यहाँ यमदूत किसे यातना दे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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