भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरु-दक्षिणा
यमराज सर्वज्ञ हैं। वे श्रीकृष्ण चरणों के नित्य सेवक हैं। यह भी जानते हैं कि अभी कुछ ही काल पश्चात ये नवघन सुंदर हमारी सगी बहन का पाणिग्रहण करने वाले हैं। विनम्र यमराज ने प्रणिपात किया–प्रभु पधारें और पुरी पावन हो। महाराज! आपके दूत हमारे गुरु पुत्र को ले आए हैं यहाँ। श्रीकृष्ण को शीघ्रता है। वैसे भी श्रीकृष्ण को-राम को यमपुरी नहीं जाना चाहिए। उनके चरणों के चिह्न तक इस पुरी की ओर नहीं आते। द्वार पर, रथ पर बैठे बैठे ही आदेश दे दिया–उसे उसके कर्मानुसार ही लाया गया यहाँ। आपके सेवकों का कोई दोष नहीं, किंतु मैं चाहता हूँ कि आप उसे अब मुझे दे दें। प्रभु की आज्ञा। यमराज ने मस्तक झुकाया। कर्म का बंधन, कर्म के नियम श्रीकृष्ण का स्मरण करने से ध्वस्त हो जाते हैं–जिसे वे स्वयं लेने आए, उसके कर्म का विवरण कैसा? उसके प्रारब्ध का प्रश्न क्या? प्रारब्ध तो जीव का उसी दिन निष्क्रिय हो जाता है, जब वह कहता है 'कृष्ण तवास्मि।' आज तो और भी अद्भुत बात है। चित्रगुप्त की महालेखा पुस्तक स्वच्छ धरी है। किसी का कोई कर्म विवरण उनके समीप नहीं। जो जीव नरक में थे–पाञ्चजन्य ध्वनि ने उन्हें दिव्य लोक भेज दिया। जिन जीवों का कर्म निर्णय करना था, उनको अब केवल कर्मयोनी–मनुष्य योनि में भेजना पड़ेगा, जिससे वे नवीन कर्म कर सकें। उनके सञ्चित कर्म तो रहे ही नहीं और वे मुक्त हुए नहीं–अभी उनमें व्यष्टि अंत:करण बना है। तब उन्हें धरा पर मानव जन्म ही तो देना है। संयमिनी के स्वामी का क्या जाता है यदि महर्षि सान्दीपनि का पुत्र नवीन जन्म नहीं लेता। वह तो अभी विचाराधीन ही जीव था। श्रीकृष्ण उसका सूक्ष्म देह यदि आतिवाहिक देह के साथ लेकर उसे संकल्प द्वारा वैसा ही स्थूल देह देना चाहते हैं–यम को कहाँ आपत्ति है। यमराज ने आतिवाहक देह लौटा दिया गुरु पुत्र और श्रीकृष्ण के संकल्प ने उसे पूर्व के समान[1] स्थूल देह दे दिया। भद्र! तुम नेत्र खोल कर अश्व सम्भाल लो। हम अवन्तिका के समीप आ चुके हैं। श्रीकृष्ण ने आदेश दिया सारथि को। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ समुद्र में डूबने से अब तक व्यतीत समय में जितना बड़ा होता, उतना बड़ा
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज