भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
पितृ-मिलन
‘वह श्वास लेता हुआ भी मरा ही हुआ है जो वृद्ध माता-पिता, साध्वी स्त्री, शिशुपुत्र, गुरु, ब्राह्मण और शरणागत की रक्षा नहीं करता। लेकिन हम समर्थ कहाँ थे।’ कृष्णचन्द्र का कण्ठ भरा आ रहा है– ‘दुष्ट कंस के भय से उद्विग्न रहते हमारे इतने वर्ष व्यर्थ चले गये, हम आपकी कोई सेवा नहीं कर सके। इस क्रूर कंस से त्रस्त हम आपकी शुश्रुषा करने में असमर्थ रहे। आप दोनों हमें क्षमा कर दें।’ ‘श्रीकृष्ण क्षमा माँग रहे हैं। प्रार्थना कर रहे हैं। इनके कमलदृगों में अश्रु हैं। ये रो रहे हैं।’ माता देवकी का हृदय और नहीं सह सका। उनका वात्सल्य उमड़ पड़ा। उन्होंने हाथ बढ़ाकर खींच लिया श्यामसुन्दर को अंक में। उनके अश्रुओं से अलकें भींगने लगीं। उनका वक्ष दूध से आर्द्र होने लगा। ‘पिताजी! क्षमा कर दें आप।’ वसुदेव जी भी विह्वल हो गये। माता से पृथक होकर कृष्ण ने पिता के पदों पर मस्तक रखा तो वसुदेव जी ने भी उन्हें भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया। इस समय श्रीबलराम को माता ने अंक में समेट लिया था। राम-श्याम में कभी एक–कभी दूसरे माता या पिता के वक्ष से सटे, लिपटे जा रहे हैं। माता-पिता के नेत्रों से आनन्दाश्रु की धार चल रही है। वर्षों के बिछुड़े पुत्र मिले हैं उन्हें। इस वात्सल्य की–इस मिलन की कोई तुलना नहीं है? नागरिक देख रहे हैं–मुग्ध देख रहे हैं और उनके कण्ठों से बार-बार जयघोष होता है– ‘महाभाग वसुदेव की जय! माता देवकी की जय! भगवान वासुदेव की जय!’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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