भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
धन्य माली सुदामा
सबने सन्तुष्ट होकर भोग लगाया। आचमन किया। ताम्बूल ग्रहण किया। सुदामा हाथ जोड़कर स्तुति करने लगा– ‘आज मेरा जन्म सफल हुआ। आज धन्य हुआ यह गृह। आज लगा कि मेरे परमोदार स्वामी ने इस छुद्रजन को अपना स्वीकार किया। आपका परमानुग्रह होता है तब किसी को आपकी सेवा का सुअवसर मिलता है। मैं आपका दास हूँ, मुझे आज्ञा दें।’ ‘माली! हम तो तुम्हारी मालाओं के लिए आये हैं।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने हंसकर कहा। सुदामा भूल ही गया था कि वह प्रात:काल से इनके लिए ही माल्य-ग्रन्थन में लगा था। वह स्वागत-सत्कार एवं स्तवन में मालाओं का अर्पण तो विस्मृत ही हो गया था। उसे अपनी ही सुधि नहीं थी अब तक। सुदामा ने मालायें पहनानी प्रारम्भ कीं। मोटी-मोटी घुटनों से नीचे तक लटकती वैजयन्ती मालायें। केशों में मालायें तथा पुष्प-गुच्छ सजाये। भुजाओं में, कलाईयों में माल्य-सज्जा की और करों में पुष्प-स्तबक दिये सबको। ‘माली! बड़ी सुन्दर हैं तुम्हारी मालायें हम बहुत प्रसन्न हैं। मांगो, क्या लेना है तुम्हें।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने माल्य-सज्जा के पश्चात् अपने सम्मुख अंजलि बाँधकर आ बैठे माली के मस्तक पर दक्षिण कर रखा। गोपकुमारों ने प्रशंसा की दृष्टि से अपने सखा की ओर देखा। यह हुई व्रजराज-कुमार के योग्य बात। माली कुछ भी मांग ले–व्रजपति के यहाँ अलभ्य क्या है। लौटकर उन्हें कह मात्र देना है। माली का घर तो वे रत्न-राशि से कल भर देंगे। ‘आपके इन चारु चरणों में अविचल अनुराग। जो आपके जन हैं, केवल उनसे मेरा सौहार्द हो और सब प्राणियों के प्रति सदा हृदय में दयाभाव बना रहे।’ माली ने किसी प्रकार गदगदकण्ठ से कहा। वह भला क्या माँगे। ये त्रिभुवनेश्वर स्वयं तो उसके मस्तक पर अभय कर रखे खड़े हैं। इन करों की छाया प्राप्त कर दुर्लभ क्या रह जाता है। माली सुदामा प्रेम-समाधि में पहुँच गया था। उसके मस्तक पर अभय कर रखे परमपुरुष–वह इस छवि में ऐसा मग्न हुआ कि उसे पता ही नहीं लगा कि कब श्रीबलराम-घनश्याम सखाओं के साथ जैसे चुपचाप इस गृह में आये थे, वैसे चुपचाप ही इससे बाहर निकले। माली के हृदय में बसी वह छवि–एक बार हृदय में आने पर वह क्या निकला करती है? वह नित्य छवि–वह एक बार आनी मात्र चाहिये और वह सौभाग्य मालाकार सुदामा का स्वत्व बन चुका था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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