भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
धन्य माली सुदामा
सुदामा डलियों पर डलियाँ भरता गया पुष्पों से। रंग-बिरंगे पुष्प और पुष्प-गुच्छ। सुकोमल किसलय एवं मंजरी सहित तुलसी-दल संग्रह किये उसने। दिन चढ़ा तो वह अपने पुष्पों, दलों आदि से घिरा बैठ चुका था। तब से अब तक वह स्तबक, सुमनगुच्छ, वनमालायें, सिरोभूषक मालायें बनाने में लगा है। बहुरंगी, अतिशय सुन्दर मालायें–इतना मनोहर माल्य-ग्रन्थन कि कला की अधिदेवता मानो उसकी अंगुलियों में आ बैठी हैं। वह स्वयं नहीं जानता कि कितनी मालायें बनाना है। वह बनाता चला जा रहा है। तन्मय कलाकार मात्र ही अपने सृजन में शरीर की सुधि भूल जाता है और सुदामा तो आज जीवन के चरम सौभाग्य के सृजन में लगा है- राम-श्याम आये। सखा आये सब, और कुछ क्षण सभी शान्त देखते रहे मालाकार को, उसकी चलती लम्बी-लम्बी अंगुलियों को और उसके समीप छड़ियों पर सजी अतिशय सुन्दर मालाओं को। ‘माली!’ कृष्णचन्द्र ने बहुत स्नेहपूर्वक पूकारा। कण्ठ से स्वर नहीं निकल रहा है; किन्तु शीघ्रता की उसने। झटपट स्तरण बिछाने लगा। उसने उस पर पाटलदल बिखेर दियें अग्रज और सखाओं के साथ श्रीकृष्णचन्द्र बैठ गये उस आस्तरण पर। सुदामा ने चरण धोये सबके। चन्दन-अक्षतादि से पूजन किया और फल, कन्द, मेवे रखकर हाथ जोड़कर प्रार्थना की– ‘करुणावरुणालय ने जब इतनी कृपा की इस नगण्य पर, तो जो इस कंकाल के यहाँ सम्भव है, उसे स्वीकार करें।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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