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प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र
नारदभक्तिसूत्र
कथादिष्विति गर्ग:॥17॥
श्रीगंगाचार्य के मत से भगवान की कथा आदि में अनुराग होना ही भक्ति है।
आत्मरत्यविरोधेनेति शाणिडल्य:॥18॥
शाण्डिल्य ऋषि के मत में आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग होना ही भक्ति है।
नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति॥19॥
परंतु देवर्षि नारद के मत से अपने सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना और भगवान का थोड़ा-सा भी विस्मरण होने में परम व्याकुल होना ही भक्ति है।
अस्त्येवमेवम्॥20॥
ठीक ऐसा ही है।
यथा व्रजगोपिकानाम्॥21॥
जैसे व्रजगोपियों की (भक्ति)।
तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवाद:॥22॥
इस अवस्था में भी (गोपियों में) माहात्म्यज्ञान की विस्मृति का अपवाद नहीं।
तद्विहीनं जाराणामिव॥23॥
उसके बिना (भगवान को भगवान जाने बिना किया जाने वाला प्रेम) जोरों के (प्रेम के) समान है।
नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम्॥24॥
उसमें (जार के प्रेम में) प्रियतम के सुख से सुखी होना नहीं हैं।
सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा॥25॥
वह (प्रेमरूपा भक्ति) तो कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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