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प्रेमदर्शन के आचार्य देवर्षि नारद और उनका भक्तिसूत्र
नारदभक्तिसूत्र
गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा॥56॥
गौणी भक्ति गुण भेद से अथवा आर्तादि भेद से तीन प्रकार की होती है।
उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति॥57॥
(उन में) उत्तर-उत्तर क्रम से पूर्व-पूर्व क्रम की भक्ति कल्याणकारिणी होती है।
अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तो॥58॥
अन्य सब की अपेक्षा भक्ति सुलभ है।
प्रमाणांतरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात्॥59॥
क्योंकि भक्ति स्वयं प्रमाण रूप है, इसके लिये अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
शांतिरूपात्परमानंदरूपाच्च॥60॥
भक्ति शांतिरूपा और परमानंदरूपा है।
लोकहानौ चिंता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात्[1] ॥61॥
लोक हाँनि की चिंता (भक्त को) नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यह भक्त अपने-आप को और लौकिक-वैदिक (सब प्रकार से) कर्मों को भगवान् के अर्पण कर चुका है।
न तदसिध्दौ[2] लोकव्यवहारो हेय: किंतु फलत्यागस्तत्साधनं च कार्यमेव॥62॥
(परंतु) जब तक भक्ति में सिध्दि न मिले तब तक लोक व्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिये, किंतु फल त्यागकर (निष्काम भाव से) उस भक्ति का साधन करना चाहिये।
स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं[3] न श्रवणीयम्॥63॥
स्त्री, धन, नास्तिक और वैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिये।
अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम्॥64॥
अभिमान, दभ्य आदि का त्याग करना चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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