पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
20. राजसूय-यज्ञ
भगवान् श्रीकृष्ण द्वैयापन वेदव्यासजी ने स्वयं इस यज्ञ में ब्रह्मा का पद स्वीकार किया। सामवेदीय महर्षि सुसान्त उद्गाता हुए। ब्रह्मज्ञानियों में अग्रगण्य महर्षि याज्ञवल्क्य ने अर्ध्वयु पद को भूषित किया। महर्षि पल और धौम्य होता हुए। इन ऋषियों के पुत्र, शिष्य तथा अन्य ऋषिगण सदसस्पति हुए। स्वस्तिवाचन पूर्वक, विधिपूर्वक उस स्वर्ण-निर्मित, रत्न-मण्डित विशाल यज्ञशाला का पूजन हुआ। अब शिल्पकार यज्ञशाला के आस-पास बहुत से देव मन्दिरों के समान भवनों का निर्माण करने में लग गये। इनमें गणपति, ग्रह, योगिनी, दिक्पालादि देवताओं की स्थापना होनी थी। सामग्रियों के लिए तथा आचार्यादि के आवास के लिए भी समीप ही भवन बनाये गये। देश के समस्त ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों को दूत भेजकर निमंत्रित किया गया। उन दूतों को अपने साथ ही वैश्यों को तथा सम्मानित शूद्रों को ले आना था। सहस्रों ब्राह्मण, क्षत्रिय सपरिवार आये। पाण्डवों तथा यादवों के सम्बन्धी, सुहृद, सहायक भी अपने पूरे परिवार तथा सेवकों के साथ आये। इन सबके साथ श्रीकृष्णचन्द्र को अपने दाहिने लेकर युधिष्ठिर ने यज्ञशाला में प्रवेश किया। सभी आगत लोग अपनी शक्ति तथा सम्मान के अनुसार बहुमूल्य अधिकतम भेंट लेकर आये थे। सभी समागतों को आदरपूर्वक उनके समाज के साथ पृथक-पृथक स्थानों में ठहराया गया। पूरा खाण्डवप्रस्थ उस समय विशाल महानगर बन गया। युधिष्ठिर ने प्रत्येक गुरुजन, सम्बन्धी से विनम्रता पूर्वक प्रार्थना की- ‘आप इस यज्ञ में मेरी सहायता करें। इस विशाल धनागार को अपना ही समझें और इसका इस प्रकार उपयोग करें कि यज्ञ का कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न हो।’ दुर्योधन को राजाओं से प्राप्त भेंट स्वीकार करनी थी। महादानी कर्ण दान करने के लिए नियुक्त हुए। दु:शासन को भोजन के लिए पदार्थ मंगाने, सम्हालने थे। द्रौपदी ने रसोईघर की अध्यक्षता ली और भीमसेन को परसने का कार्य करना था। अश्वत्थामा ब्राह्मणों की सेवा में लगाये गये। राजाओं का स्वागत सत्कार संजय को करना था। ‘मैं आगत विप्रों का पाद प्रक्षालन करूँगा।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने जब स्वयं यह कहा तो धर्मराज भाव विह्वल हो गये। वे एक शब्द बोल नहीं सके। |
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