पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
89. अश्वमेध यज्ञ
पाण्डव हिमालय के उस पावन प्रदेश से प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त करके लौटे। उनको वंशधर पौत्र की प्राप्ति हो चुकी थी भगवान पुरुषोत्तम कृपा से। सब प्रकार उनका अभ्युदय हो रहा था। भगवान व्यास हस्तिनापुर पधारे। युधिष्ठिर ने उनका पूजन किया। व्यासजी ने अब अश्वमेघ यज्ञ करने की आज्ञा दी ! श्रीकृष्ण ने इसका अनुमोदन किया। युधिष्ठिर ने तो श्रीकृष्णचन्द्र के समीप जाकर कहा था- 'पुरुषोत्तम ! भाइयों के साथ मैं आपका सेवक हूँ। आपके ही प्रभाव से हम उत्तम भोगों का उपभोग कर रहे हैं। आपने ही अपने पराक्रम से पूरी पृथ्वी पर विजय प्राप्त की हैं। अत: ही यज्ञ की दीक्षा लेकर इसे आरम्भ करें। आप ही यज्ञपुरुष, अक्षर, सर्वरूप तथा सबकी गति हैं। आप यज्ञ करेंगे तो उसमें सेवा करके हम सबके सभी पाप निश्चय नष्ट हो जायँगे। मेरी आन्तरिक इच्छा है कि आप यज्ञ करें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'महाराज ! आपका यह कथन आपके ही अनुरूप हैं। आप सम्पूर्ण प्राणियों के पालक हैं। धर्म आप में प्रतिष्ठित है। आप मेरे सम्मान्य हैं। आप यज्ञ का अनुष्ठान करें, यह मेरी इच्छा है। हम सबको आप जो आदेश करेंगे, हम उसका पालन करेंगे।' युधिष्ठिर ने भवगान व्यास को यज्ञ का आचार्य वरण किया। उनकी आज्ञा से यज्ञ के लिए आवश्यक सामग्री एकत्र की गयी। उत्तम मुहूर्त में यज्ञीय अश्व छोड़ा गया और ससैन्य अर्जुन उस अश्व के रक्षक नियुक्त हुए। भीमसेन और नकुल नगर-रक्षापर नियुक्त हुए। सहदेव को कुटुम्ब-पालन का कार्य देकर राजा युधिष्ठिर ने यज्ञ की दीक्षा ग्रहण की। महर्षि याज्ञवल्क्य के एक शिष्य गुरु की आज्ञा से विघ्न-शान्ति के लिए अर्जुन के साथ हो गये। दूसरे भी वेदवेत्ता ब्राह्मण धर्मराज के आदेश से साथ गये। प्रजा की शुभकामना तथा ब्राह्मणों एवं वृद्धों का आशीर्वाद लेकर अर्जुन अश्व के पीछे हस्तिनापुर से चले। अर्जुन को बहुत अधिक स्थानों पर युद्ध करना पड़ा। यद्यपि युधिष्ठिर ने चलते समय उनसे कहा था कि प्रयत्न ऐसा ही करना कि जहाँ तक बन सके युद्ध न करना पड़े: किन्तु जिनके बन्धु-बान्धव महाभारत-युद्ध में मारे गये थे, पाण्डवों द्वारा किरात, यवन, म्लेच्छादि पराजित किये गये थे, वे सब अर्जुन का सामना करने आये। इस प्रकार विभिन्न देशों में अर्जुन को युद्ध करना पड़ा। त्रिगर्त देश के संसप्तको के सम्बन्धी और सन्तति तो अर्जुन से बैर बाँधे ही थे। पाण्डवों का यज्ञीय अश्व उनके देश की सीमा में पहुँचा तो वे अश्व को पकड़ने का प्रयत्न करने लगे। अर्जुन ने उन्हें रोका ओर जब वे नहीं माने तो युद्ध प्रारम्भ हो गया। युद्ध में अपने अठारह प्रधान महारथियों के मारे जाने पर त्रिगर्त के लोगों ने हथियार डाल दिया और पाण्डवों का शासन स्वीकार कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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