पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. परीक्षित को पुनर्जीवन
युधिष्ठिर अत्यन्त धर्मनिष्ठ थे। अत: उनका हृदय इस व्यथा से बहुत व्याकुल रहता था कि उनके कारण युद्ध हुआ और इतना अधिक नरसंहार हुआ। श्रीकृष्ण और भीष्म के समझाने पर उन्हें सन्तोष नहीं हो रहा था। भगवान व्यास ने बार-बार समझाया। अन्त में कहा- 'युधिष्ठिर ! यदि अब भी तुम्हारा हृदय सन्तुष्ट नहीं होता है तो जो मारे जा चुके, उनको जीवित तो किया नहीं जा सकता। शास्त्रों ने सभी अपकर्मो का प्रायश्चित्त बतलाया है। युद्ध के महानाश का प्रायश्चित्त अश्वमेध यज्ञ है। इन्द्र ने वृत्र वध के प्रायश्चित्त में यही किया था। तुम्हारे पूर्वपुरुषों ने भी यही किया है। अत: तुम भी यही करो।' धर्म पुरुषार्थी की आस्था अपने कर्म में होती हैं। धर्मराज युधिष्ठिर को यह उपाय उपयुक्त लगा; किन्तु इससे वे अधिक खिन्न होकर बोले- 'भगवन ! आपका बताया मार्ग निश्चत कल्याणकारी है; परन्तु अश्वमेध यज्ञ के लिए बहुत धन चाहिए। मैं इस समय कंगाल हो रहा हूँ। वन से लौटने पर हमारे पास तो सम्पति थी ही नहीं। दुर्योधन ने हमारा सब धन द्यूत में ले लिया था, और भी अधिक सम्पति उसने एकत्र की थी; किन्तु युद्ध बहुत अधिक व्यय कराता है। वह सब धन युद्ध में व्यय हो गया। बहुत-सा नष्ट हो गया। लाख-लाख नारियाँ इस महासंहार में विधवा हुईं। असंख्य बच्चे अनाथ हो गये। अब इन सबके पालन-पोषण-संरक्षण का भार राज्य पर आ पड़ा हैं। उन्हें उनके स्वजनों का अभाव तो है ही। अब यदि आर्थिक असुविधा भी हो तो उनका कष्ट बहुत बढ़ जायगा। अत: उनकी सुख-सुविधा की पूर्ति हमारा प्रथम कर्तव्य हो गया। 'युद्ध में अभिमन्यु से भी छोटी वय तक के कुमार आ गय थे। अब जो राज्यों के सिंहासनों पर हैं, वे अनुभव हीन अबोध बालक हैं। उनके मन्त्री, विधवा माताएँ अथवा अत्यंत वृद्ध सम्बंधी ही उनकी सहायता शासन में कर रहे हैं। ऐसे बालक शासकों से कर माँगना नितान्त निष्ठुर कार्य है। उन्हें तो सहायता तथा संरक्षण हमसे मिलना चाहिए। अत: यज्ञ के लिए कहीं से भी धन पाने का कोई मार्ग नहीं है।' भगवान व्यास ने युधिष्ठिर की सदाशयता की प्रशंसा की। उन्होंने विस्तारपूर्वक राजा मरुत के यज्ञ की कथा सुनाकर बतलाया कि 'उस यज्ञ में इतना अपार धन आया था, इतना सोना एकत्र हुआ था कि ब्राह्मणों के लिए उसे ले जाना सम्भव नहीं था। वैसे भी उस यज्ञ में विरक्त ब्राह्मण आये थे। वे सब धन वहीं छोड़ गये। वह अतिशय विशाल यज्ञ-मण्डप तथा सब पात्र स्वर्ण के बने थे। वह स्वर्ण वहीं भूमि में दबा पड़ा है। तुम उसे ले आओ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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