पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. दानी कर्ण
धर्मराज युधिष्ठिर कुछ बोले नहीं। वे सोचने लगे। द्रौपदी को श्रीकृष्ण के वचन उपयुक्त लगे किन्तु भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव को इसमें अतिशयोक्ति लगी अर्जुन ने कहा – ‘हम लोग कृपण तो नहीं हैं। हममें से भी कोई उस पद पर होता तो वही करता जो कर्ण ने किया। इसमें कर्ण की प्रशंसा की जाय, ऐसी तो कोई बात जान नहीं पड़ती।’ श्रीकृष्णचन्द्र कुछ बोलते इससे पहिले ही उस राजसभा में एक ब्राह्मण अतिथि आ गये। धर्मराज ने भाइयों के साथ उठकर उन्हें प्रणाम किया। अर्ध्य देकर आसन पर बैठाया और उनके चरण धोये। पूजा के पश्चात ब्राह्मण ने कहा – ‘मैं तीन दिन से कुछ आहार नहीं कर सका क्योंकि मेरा नियम है कि स्वयं रन्धन करके अपने इष्टदेव को भोग लगाकर ही प्रसाद ग्रहण करता हूँ।’ युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर पूछा – ‘इसमें कठिनाई क्या है?’ क्योंकि भारत जैसे धर्मप्राण देश में, धर्मराज के सम्राट रहते एक ब्राह्मण को भोजन बनाने की सुविधा तीन दिन से न मिले तो वह सामान्य रूप से भोजन बनाने वाला निश्चय नहीं होना चाहिऐ। ब्राह्मण ने कहा – ‘राजन ! मैं अपने इष्ट देव को अर्पण करने के लिए रन्धन करता हूँ अत: भली प्रकार सूखे चन्दन काष्ठ से ही करता हूँ और उस ईंधन पर जल का कोई बिन्दु पड़ जाय तो वह कुछ-न-कुछ धूम अवश्य देगा। उसे आराध्य को प्रस्तुत होने वाले नैवेद्य में ईंधन नहीं बनाया जा सकता।’ तीन दिन से वर्षा की झड़ी लगी थी अत: ब्राह्मण की कठिनाई समझ में आने योग्य थी। युधिष्ठिर ने भीमसेन की ओर देखा। वे उठे और उन्होंने व्यवस्था करने का प्रयत्न किया। राजभवन में चन्दन का काष्ठ ईंधन के रूप में प्रयोग करने योग्य नहीं है, यह शीघ्र पता लग गया। अनेक सेवक नगर में भेजे गये। कहीं चन्दन मिल जाय तो उसे बिना भीगे सुरक्षित ले आना कोई समस्या नहीं थी किन्तु संयोग ऐसा कि इन्द्रप्रस्थ के पूरे नगर में चन्दन काष्ठ कहीं नहीं मिला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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