पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. माया-दर्शन
भीमसेन एक रात्रि उमंग में आकर कीर्तन करने लगे। उनका भारी स्वर गूंजने लगा तो धर्मराज ने बुलाकर स्नेह पूर्वक कहा- ‘भैया ! भगवन्नाम का संकीर्तन तो उत्तम है; किन्तु आप एकान्त में कहीं कीर्तन करें तो उत्तम होगा। कष्टप्रद न हो, इसका ध्यान रखना चाहिए।’ भीमसेन ने अग्रज की बात स्वीकार कर ली। वे इन दिनों कुछ उदास रहने लगे थे। देवी कुन्ती ने धर्मराज से चिन्तित होकर कहा था- ‘भीम इन दिनों पूरा भोजन नहीं करता। इसे मन मारे देखकर मुझे दु:ख होता है।’ माता के पूछने पर ही जिसने कुछ नहीं बतलाया, उससे यह कैसे आशा की जाय कि भाई के पूछने पर कुछ कहेगा। धर्मराज ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा। पाण्डवों के उन परमाश्रय ने कह दिया कि वे इसके सम्बन्ध में सोचेंगे। एकान्त दम्पत्ति परस्पर कैस बैठते हैं, यह किसी दूसरे के देखने-सोचने की बात नहीं होती। प्रेम में बड़े-छोटे का भेद विलीन हो जाता है। कभी पत्नी में प्रणय-कोप हो, यह प्रीति का ही परिपाक है और तब पति उसे अनुनय करके प्रसन्न करता ही है। किसी ऐसे क्षण में ही भीमसेन की दृष्टि पड़ गयी थी और उनके जैसे मल्ल के लिए यह सब समझना कठिन था। अपने सीधे स्वभाव के कारण उन्हें लगा कि द्रौपदी में ही गर्व आ गया है। द्रौपदी से तो उन्हें भी काम पड़ना ही था। अब अपनी इस चिन्ता की बात वे किससे, कैसे कहें। भीमसेन राजभवन से निकले और नगर से दूर यमुना तट पर चले गये। निस्तब्ध रात्रि, स्वच्छ आकाश और अमृत धवल चन्द्रिका। भीमसेन को पता नहीं लगा कि कितनी दूर चले आये। चारों ओर वन देखा तो आश्वस्त हो गये कि अब किसी की निद्रा में बाधा नहीं पड़ेगी। ‘मुकुन्द गोविन्द गोपाल कृष्ण। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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