पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. द्रौपदी भीष्म-शिविर में
चतुर्थ दिवस का युद्ध भी कोई उत्साह कौरवों को नहीं दे सका। भीमसेन ने धृतराष्ट के अनेक पुत्रों को मार दिया था और घटोत्कच के पराक्रम से तो महासेनापति भीष्म भी आतंकित हो उठे थे। उन्होंने उसे अजेय समझकर सूर्यास्त से कुछ पहिले ही युद्ध बन्द करने की घोषणा करके अपने पक्ष को बचाया। दुर्योधन इस पराजय से खिन्न होकर रात्रि के समय भीष्म के समीप गया और उसने पूछा- 'पितामह मैं समझता हूँ कि आप, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य, कृतवर्मा, अश्वत्थामा प्रभृति महारथी मिलकर तीनों लोकों को संग्राम में पराजित कर सकते हैं किन्तु पाण्डवों के पराक्रम के सम्मुख आप सब भी टिक नहीं पा रहे हैं, इसका कारण क्या है? पाण्डवों में ऐसी क्या विशेषता है?' भीष्म पितामह स्वस्थ बैठ गये। उन्होंने कहा- 'सुयोधन! अनेक बार अनेक सम्मान्य ऋषियों ने तुम्हें वह कारण सुनाया है; किन्तु तुम ने ध्यान ही नहीं दिया। पूर्वकाल में गन्धमादन पर्वत पर भगवान ब्रह्मा की सेवा में एक बार सब देवता तथा मुनिगण उपस्थित थे। उसी समय वहाँ एक तेजोमय विमान आया। उस विमान से साक्षात नारायण आये थे। सृष्टि कर्ता ने खड़े होकर सबके साथ उनका स्वागत किया। प्रणाम करके पूजन किया, स्तुति करके उनसे भूभार-हरणार्थ धरा पर अवतीर्ण होने की प्रार्थना की।' भगवान ने वह प्रार्थना स्वीकार कर ली और अन्तर्हित हो गये। वही परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुए हैं और अर्जुन उनके अभिन्न सखा नर हैं। मैंने भगवान परशुराम, देवर्षि नारद तथा व्यासजी से भी यह सुना है। अतः श्रीकृष्ण तो सभी के पूजनीय हैं। ये सनातन, अविनाशी, सर्वलोकमय, नित्य, जगदीश्वर, जगद्धर्ता, अविकारी हैं। मैंने तुम्हें पहिले भी युद्ध करने से रोका था। जहाँ धर्म है, वहाँ श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, जय वहीं रहती है। अतः पाण्डवों को विजय निश्चित है।' दुर्योधन ने उस दिन पूछ लिया- 'वसुदेव पुत्र सम्पूर्ण लोकों में महान कहे जाते हैं। मैं उनकी उत्पत्ति स्थिति के विषय में जानना चाहता हूँ।' भीष्म जैसे भक्त को तो भगवद् गुणगान का निमित्त मिलना चाहिए। वे प्रसन्न होकर बोले- 'भगवान वासुदेव देवताओं के भी देवता हैं। कमललोचन श्रीकृष्ण से बड़ा कोई नहीं है। वे पुरुषोत्तम सर्वभूतमय हैं। वे ही सबकी उत्पत्ति और प्रलय के स्थान है। देश, काल तथा वस्तु मात्र की उन्होंने ही कल्पना की है। नृसिंह, वाराह, त्रिविक्रमादि अवतार इन्होंने ही लिया है। ये सम्पूर्ण भूतों के आश्रय हैं। मुनिजन इन्हें हृषीकेश कहते हैं। इनका पूजन, ध्यान, स्मरण करने वाला परमपद पाता है। ये जिस पर प्रसन्न हैं, उसने अक्षय लोक गीत लिये हैं। श्रीकृष्ण की शरण लेने वाला सब भयों से सुरक्षित रहता है तथा सुख पाता है। 'देवर्षि नारद, मार्कण्डेय मुनि, महर्षि भृगु, भगवान व्यास, अंगिराज जी, देवल, असित प्रभृति महामुनि, महर्षिगण, श्रीकृष्ण को सर्वकारण कारण, सर्वलोकेश्वरेश्वर, परमब्रह्म कहकर उनकी स्तुति करते हैं। ब्रह्माजी के पुत्र सनत्कुमारादि इन भगवान पुरुषोत्तम का सदा पूजन-स्तवन करते हैं। अन्त में भीष्म ने कहा- 'श्रीकृष्ण की महिमा का पार नहीं है। मैंने उनका तथा अर्जुन का वास्तविक स्वरूप तुम्हें बतला दिया। ये युद्ध में अजेय तथा अवध्य हैं। दूसरे भी पाण्डवों पर श्रीकृष्ण का अनुराग है, अतः वे किसी के द्वारा मारे नहीं जा सकते। तुम पाण्डवों से सन्धि करके अपने भाइयों के साथ सुखपूर्वक अब भी राज्य भोग सकते हो।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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