पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. जगद्गुरु
मुझे यहाँ एक घटना देना ठीक लगता है। मैं उस समय गोरखपुर के ‘कल्याण’ के सम्पादकीय-विभाग से अवकाश लेकर मानसरोवर–कैलास की यात्रा करने निकला था। रेलवे स्टेशन टनकपुर से पिथौरागढ़ धारचूला होते हम भारतीय सीमा के अन्तिम गांव गर्व्यांग पहुँचे तो पता लगा कि दो यात्री दल ओर रुके पड़े हैं। तिब्बत जाने का मार्ग खुला नहीं है। थोड़ी पूछ-ताछ करने पर पता लगा कि बकरियाँ लेकर उनके चरवाहे जा चुके हैं। घोड़े-खच्चर तो नहीं जा सकते; किन्तु पैदल जाया जा सकता है। हमने चोटी (शिखर) के नीचे तक के लिए घोड़े किये और आगे के लिये कुली लिये। दूसरे दिन प्रात: चलकर शिखर के नीचे शाम को पड़ाव डाला। प्रात: साढ़े तीन बजे ही शिखर चढ़ना प्रारम्भ किया। इस मार्ग में एक ही शिखर पार करके तिब्बत में तकलाकोट पहुँचते हैं तकलाकोट में ही उस समय चीनी सेना की अग्रिम चौकी थी और तब वे तीर्थ यात्री को तलाशी लेकर जाने देते थे। जैसे कद्दूकस पर कसी नारियल की गिरी बोरों में भरकर उँडेली जाय ऐसे हिम के हल्के छोटे टुकड़े इतने सघन गिर रहे थे कि अपना हाथ भी फैलाने पर नहीं दीखता था। अपने ही पैर स्पष्ट नहीं दीखते थे। शीत इतनी थी कि अपनी श्वांस की नमी मूंछों पर जम रही थी। मैं इस शीत के कारण वेग से नीचे उतरता जा रहा था। सहसा मेरे पैर रुक गये। मैं उस सफ़ेद अन्धकार में कुछ देख नहीं सकता था। केवल इतना लगा कि दाहिनी ओर छाया लगभग दस हाथ दूर आकर खड़ी हो गयी है। अकल्पनीय ऊँची छाया- पता नहीं वह आकार इतना ऊंचा था या हिमपात के कारण वैसा दीख रहा था। यहाँ यह स्पष्ट कर दूं कि छाया ने जो कुछ कहा, सरल संस्कृत में कहा और मैं हिन्दी बोलता रहा। मेरे खड़े होते ही छाया से शब्द आया ‘अपने डंडे से सामने देखो। (लगुडेन पुरतो पश्य) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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