पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
84. भीष्म-स्तुति
श्रीकृष्णचन्द्र के कहने पर भीष्म ने युधिष्ठिर का संकोच दूर किया कि युद्ध करके उन्होंने अपने कर्तव्य की ही पालन किया है। युद्ध में क्षत्रिय को अपने सम्मुख आने वाले पर पूरी शक्ति से प्रहार करना ही चाहिए। यदि प्रतिपक्षी बुद्धिमान है तो वह इसे वीर-पूजा ही मानता है। 'ये सर्वेश्वर सौन्दर्यघन श्रीकृष्ण' भीष्म ने भरित कण्ठ से कहा- 'युधिष्ठिर ! तुमने नहीं देखा कि मैं अपने सबसे तीक्ष्ण बाण पूरी शक्ति से इनके श्रीविग्रह पर ही मारता रहा और ये मेरे आराध्य हैं, इसमें तो दुर्योधन को भी सन्देह नहीं था। संग्राम में शर ही सुमन होते हैं और उनसे ही सम्मुख आये सम्मान्य की सम्यक पूजा उचित है। तुमने कोई अपराध या अनुचित कार्य नहीं किया। जैसे ये मेरे सर्वस्व मेरी उस अर्चा से सुप्रसन्न हैं, मैं भी तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम संकोच मत करो। तुम्हें जो पूछना हो, पूछो।' युधिष्ठिर ने पूछना प्रारम्भ किया और उनके प्रश्नों का उत्तर भीष्म विस्तार से, नाना कथा, आख्यान, उदाहरण देकर विस्तारपूर्वक देने लगे। यह क्रम पूरे पचपन दिन तक चलता रहा। प्रात:काल स्नान-सन्ध्या करके सब ऋषि-मुनि पाण्डव तथा श्रीकृष्ण आ जाते थे और सांयकाल वयाँ से विदा हुआ करते थे। युधिष्ठिर के प्रश्नों के उत्तर-क्रम में राजोचित शिष्टाचार के वर्णन से भीष्म ने प्रारम्भ किया। राजा का नीतिपूर्ण व्यवहार, राज्य-शासन के साधन, नीतिशास्त्र, चारों वर्णों एवं आश्रमों के धर्म, साधारण धर्म, राजधर्म तथा उसमें सभी आश्रमों के धर्मों का समावेश, राजा की आवश्यकता, राजा के प्रधान कर्तव्य, दण्डनीति का प्राधान्य, राजा के विशेष गुण, राजा के लिए पुरोहित की आवश्यकता, विविध प्रकार से लोगों से राजा के व्यवहार का आदर्श, आपद्धर्म, मित्र-अमित्र के लक्षण, मन्त्री की जांच, सभासदों के लक्षण, राजा की व्यवहार-नीति, नगर का आदर्श, राष्ट्र–रक्षा तथा उसकी उन्नति के उपाय कर लेने का ढंग, धर्म-पालन के लाभ, युद्धनीति, युद्ध में हुई हिंसा का प्रायश्चित्त, युद्ध में मरने वालों की गति, सैन्य-संचालन-रीति, योद्धा के लक्षण, विजय के चिह्न, असहाय स्थिति में पड़े शासक का कर्तव्य, कूटनीति आदि राजधर्मों का विस्तारपूर्वक भीष्म ने पहिले अनेक दृष्टान्त देकर वर्णन किया। इसके अनन्तर माता-पिता-गुरु की सेवा, सत्यासत्य-निर्णय दु:खों से छूटने के उपाय, मनुष्य-स्वभाव की पहचान, शील-निरुपण, शरणागत-रक्षा, लोभ के दोष, शिष्ट पुरुष के लक्षण, अज्ञान के दोष, इन्द्रिय-दमन, तप-सत्य की महिमा, काम-क्रोध के दोष, पाप और उनके प्रायशचित, मित्र-लक्षण आदि धर्मों का निरुपण हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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