पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
69. शल्य भी समाप्त
अश्वत्थामा की सम्मति से दुर्योधन ने मद्रराज शल्य को अपना सेनापति बनाया। यह समाचार पाण्डव शिविर में पहुँचा तो युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा प्रमुख शूरों के साथ श्रीकृष्ण के समीप गये। इसमें एक संकोच की बात थी; क्योंकि शल्य माद्री के सगे भाई होने के कारण नकुल-सहदेव के मामा थे। ‘श्रीकृष्ण ! अब शत्रु के सेनापति शल्य बनाये गये हैं।’ धर्मराज ने कहा- ‘सब सेनाओं में मद्रराज का विशेष सम्मान है। अतः अब संग्राम शैली के सम्बन्ध में आपकी क्या सम्मति है !’ श्रीकृष्ण ने कहा- 'शत्रु को कभी अल्प शक्ति समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। आर्तायन के पुत्र शल्य अत्यन्त तेजस्वी तथा पराक्रमी हैं। उन्हें युद्ध के अनेक अद्भुत कौशल ज्ञात हैं। मैं उन्हें भीष्म, द्रोण अथवा कर्ण से कम नहीं मानता। युद्ध में उनके सम-बल शूर मुझे आप ही लगते हैं। क्रोध में भरे मद्रराज शल्य का सामना करने में केवल आप ही समर्थ हैं। अतः मामा समझकर उन पर दया दिखाना उचित नहीं है। मेरी बात मानकर आप महारथी शल्य का सामना करें और क्षत्रिय धर्म पर स्थिर रहकर उन्हें मार डालें। आज के संग्राम में आपको अपना तपोबल और क्षात्रबल दिखलाना चाहिए। दुर्योधन ने सब सैनिकों को एकत्र किया। प्रातः काल सबने शपथ ली कि पाण्डवों से कोई अकेला होकर नहीं लड़ेगा। सब साथ रहकर एक दूसरे की सहायता करते हुए लड़ेंगे। जो ऐसा नहीं करेगा उसे पाँचों महापाप तथा पाँचों उपपातक लगेंगे। कर्ण के मारे जाने पर दोनों पक्षो में सेना का बल कौरवों का ही अधिक था। उनके पास पाण्डवों से दुगुनी से भी अधिक सेना रह गयी थी; किन्तु पाण्डवों में जहाँ प्रायः सभी विद्यमान थे, कौरव सेना के अधिकांश प्रसिद्ध महारथी मारे जा चुके थे। युद्ध प्रारम्भ हुआ। आरम्भ का उत्साह शीध्र शिथिल होने लगा। भीमसेन तथा अर्जुन के सम्मुख कौरव सेना का व्यूह टिक नहीं सका। नकुल ने कर्ण के अब तक बचे तीनो पुत्रों को मार दिया। शल्य का सामना युधिष्ठिर कर रहे थे। भीमसेन उनकी सहायता करने में लगे थे। कौरव पक्ष से महारथी द्रुमसेन शल्य की सहायता करने आकर युधिष्ठिर द्वारा मारा गया। शल्य ने सचमुच प्रचण्ड पौरुष प्रकट किया। उनकी मार से पाण्डव सेना युधिष्ठिर के पुकारने पर भी मैदान छोड़कर भागने लगी। अब युधिष्ठिर ने सम्राट के समान आदेश किया -'नकुल और सहदेव मेरे रथ चक्र की रक्षा त्यागकर अब अपने मामा के साथ अच्छी प्रकार युद्ध करें। मेरे रथ के चक्रों की रक्षा का भार सात्यकि तथा धृष्टधुम्न पर रहा। अर्जुन को मेरा पृष्ठ रक्षक रहना चाहिए। भीमसेन मेरे आगे चलेंगे। इस प्रकार में अब शल्य को मारकर ही संग्राम से पीछे हटूँगा।' सम्राट का आदेश सबने स्वीकार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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