पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
14. मय का सभा निर्माण
‘धन्य हो आप धनञ्जय !’ दानवेन्द्र मय ने हाथ जोड़कर अर्जुन से कहा- ‘आपके इन सखा का चक्र तो मुझे मार ही देता यदि आपने रक्षा न की होती। मैं भले अमरत्व का वरदान प्राप्त होऊँ, इनके अस्त्र और संकल्प के सम्मुख तो कोई शक्ति टिकती नहीं। आप इतने उदार कि असुर पर भी कृपा की आपने। अब अपनी कोई सेवा बताकर मुझे कृतार्थ कीजिये।’ मय ने अत्यधिक विनम्र होकर कहा- ‘कौन्तैय ! आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष के उपयुक्त ही आपके वचन हैं; किन्तु मैं दानव विश्वकर्मा हूँ। सन्देह ही है कि सुरों का विश्वकर्मा शिल्प में मेरी समता कर सकता है। मैं प्रेम से आपकी सेवा करना चाहता हूँ। मेरी सेवा स्वीकार कर लो।’ अब मय ने समीप बैठकर हाथ जोड़कर कहा- ‘मधुसूदन ! मैं जानता हूँ कि आपकी सेवा महा मुनिन्द्रों के लिए भी दुर्लभ है। मैं असुर साहस नहीं कर सकता था कि आपसे सेवा-प्राप्त करने की प्रार्थना करूँ; किन्तु आप भक्त वत्सल हैं और आपके प्रिय सखा ने मुझे यह प्रार्थना करने का अधिकार दे दिया है। अब आप मुझे अपनी कोई सेवा देकर धन्य कर दें।’ श्रीकृष्णचन्द्र सुप्रसन्न बोले- ‘दानवेन्द्र ! आप भगवान् शशांक शेखर के प्रिय भक्त हैं और जो उन गंगाधर का प्रिय है, मुझे अतिशय प्रिय है। मैं जानता हूँ कि आप जैसा शिल्पी त्रिभुवन में दूसरा नहीं है। विश्वकर्मा ने महाराज युधिष्ठिर के लिए राजधानी तथा नगर-निर्माण कार्य किया; किन्तु राजसभा नहीं बनायी। तब उसके लिए उपयुक्त स्थान ही नहीं था। अब खाण्डव वन भस्म हो जाने से इतना विस्तृत प्रदेश प्रशस्त हो गया है। आप धर्मराज के लिए एक ऐसी राजसभा बना दें कि चतुरतम शिल्पी भी देखकर उसकी अनुकृति न कर सकें। वह अद्वितीय रहे। उसमें देवता, दानव, दैत्यादि कलाओं का पूरा कौशल प्रकट होना चाहिए।’ |
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