पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
43. युद्ध की प्रस्तुति
विराट नगर लौटकर भगवान वासुदेव ने विस्तार से वह सब सुनाया जो हस्तिनापुर में हुआ था। कुन्ती का सन्देश दिया। यह भी बतलाया कि दुर्योधन ने भीष्म को प्रधान सेनापति नियुक्त किया है और उन लोगों ने पुष्य नक्षत्र में कुरुक्षेत्र को कूच कर दिया है। श्रीकृष्ण की बात सुनकर युधिष्ठिर ने भाईयों से सेना के विभाग किये। सात आछौहिणी सेना पाण्डवों के पक्ष में एकत्र हुई थी। उसके सात सेनापति नियुक्त किये गये- 1. महाराज द्रुपद 2. महाराज विराट 3. धृष्टद्युम्न 4. शिखण्डी, 5. सात्यकि, 6. चेकितान और 7. भीमसेन। इस पर युधिष्ठिर न कहा - ‘समस्त संसार के सारासार तथा बलाबल को श्रीकृष्ण ही ठीक-ठीक जानते हैं। अतः ये जिसके लिए सम्मति दें, उसी को सेनापति बनाया जाय। भले वह शस्त्र संचालन में कुशल हो या न हो। वह वृद्ध हो या युवा हो। हमारी जय पराजय के एकमात्र कारण ये वासुदेव ही हैं। हमारे प्राण, राज्य, भाव-अभाव सब इन्हीं पर अबलम्बित हैं। सबके कर्ता-धर्ता यही हैं, इन्हीं पर सब कामों की सिद्धि है। हम सब तो इन्ही इंगित के अनुवर्ती है।’ इस समर्पण में पाण्डवों में दो मत नहीं था, संभव ही नहीं था और समर्पण के साथ ही विजय तो सुनिश्चित हो गयी। श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण करने वालों को पराभव देने वाली शक्ति तो न कभी उत्पन्न हुई, न होगी। कमल लोचन श्रीकृष्ण बोले - ‘राजन ! मैं उन सभी वीरों को प्रधान सेनापति पद के योग्य मानता हूँ जिनके नाम इस पद के लिए गिनाये हैं। ये सभी पराक्रमी योद्धा हैं। आपके लिए प्राण देने को प्रस्तुत हैं। लेकिन मेरी सम्मति में धनुष, कवच, खड्ग धारण किये, रथारूढ़ यज्ञ के अग्निकुण्ड से प्रकट कुमार धृष्टद्युम्न ही को प्रधान सेनापति बनाना उचित है।’ श्रीकृष्ण की सम्मति से पाण्डवों ने युद्ध की यादव पद्धति अपनायी। सर्वत्र प्रचलित पद्धति यही थी कि प्रधान सेनापति ही युद्ध का प्रधान होता था। उसी को सेना का संचालन, संरक्षण तथा स्वयं आगे रहकर समर का प्रधान भाग सम्हालना था। यादवों ने इसमें एक संशोधन किया था। उनके प्रधान सेनापति द्वारिका में अनाधृष्ट थे किन्तु प्रधान योद्धा सात्यकि थे। कौरव पक्ष सर्वत्र प्रचलित परिपाटी के अनुसार प्रधान सेनापति चुनकर चला। जब एक सेनापति मारा गया तो दूसरे को प्रधान सेनापति बनाया गया। भीष्म, द्रोण, कर्ण और शैव्य ये क्रमशः चार प्रधान सेनापति दुर्योधन के दल के बने। यादव-युद्ध पद्धति अपनाकर पाण्डवों ने प्रधान सेनापति धृष्टद्युम्न को बनाया और प्रधान योद्धा अर्जुन को चुना। इस पद्धति में प्रधान सेनापति का दायित्व सेना का संचालन, संरक्षण, उसे व्यूह बद्ध करना तथा उसकी व्यवस्था करना था। प्रधान योद्धा सेना के निरीक्षण, संरक्षण आदि दायित्व से मुक्त था और सेना के साथ प्रधान सेनापति को उसी की सहायता करना था। प्रधान योद्धा को ही युद्ध का प्रधान भाग सम्हालना था और कहाँ किससे युद्ध करना है, कहाँ आघात करना है आदि निर्णय में वह स्वतंत्र था। यह सेना का संचालक तो नहीं था किन्तु स्वंय चाहे जहां-जैसे संग्राम करने को स्वतंन्त्र था और सेना उसकी सहायक थी। इस पद्धति का एक परिणाम इस युद्ध में प्रकट हुआ कि प्रधान सेनापति अन्तिम विजय तक एक ही बना रहा। वह कभी विपत्ति में नही पड़ा। सब बड़े आघात प्रधान योद्धा को ही सम्हालने पड़े। वह समर्थ न भी होता तो भी सेना की संचालन व्यवस्था सेनापति के परिवर्तन के कारण बदलना नहीं पड़ता। उत्तम विजय मुहुर्त में श्रीकृष्ण की सम्मति से पाण्डवों ने भी प्रस्थान किया। वस्तुओं को बैलगाड़ियों से भेजने की व्यवस्था हुई। डेरे-तम्बू, सवारियां, यंत्र, कोष, व्यवसायियों का समूह चिकित्सक सभी साथ थे। पाञ्चाल राजकुमारी द्रौपदी अन्य महिलाओं तथा दास-दासियों के साथ उपप्लव्य शिविर में रुकी। वहीं पर कोटे तथा पहरेदारों द्वारा स्त्रियों तथा कोष की सुरक्षा की व्यवस्था थी। व्यूहबद्ध होकर, ब्राह्मणों को दान करके यह पाण्डव सेना कुरुक्षेत्र पहुँची। शमशान, देवमन्दिर, तीर्थ तथा ऋषियों के आश्रमों से दूर, जल, घास तथा ईंधन की सुविधा देखकर चौरस समतल प्रशस्त भूमि में शिविर स्थापित हुआ। श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के समान ही सुन्दर, सुविधापूर्ण शिविर सब सहायक नरेशों के लिए बनवाये। सहस्रों वैद्य, शिल्पी आदि से परिपूर्ण वह पूरा नगर बन गया जिसमें व्यवसायियों ने भव्य बाजार बना लिया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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