पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
35. प्रस्थान
शरद ॠतु का अन्त होने पर हेमन्त के प्रारम्भ में कार्तिक मास में रेवती नक्षत्र और मैत्र मुहूर्त में श्रीकृष्णचन्द्र ने यात्रा प्रारम्भ की। सात्यकि से उन्होंने कहा - 'मेरे रथ में शंख, चक्र, गदा, खड़ग, धनुष, त्रोण आदि शस्त्र सजा दो।' शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक इन चारों श्रीकृष्ण के अश्वों को स्नान कराके सुसज्जित किया गया था। वे गरुड़ध्वज रथ में जोड़े गये। रथ का पूजन हुआ। दारुक ने कर का सहारा देकर अपने स्वामी को उस पर आरूढ़ किया। सात्यकि भी उसी रथ में बैठे। मंगलवाद्य ध्वनि, शंखनाद तथा विप्रों के स्वस्त्ययन के मध्य रथ ने प्रस्थान किया। भाइयों के साथ धर्मराज तथा उनके साथी नरेश काशिराज, धृष्टकेतु आदि पहुँचाने साथ चले। युधिष्ठिर ने चलते समय श्रीद्वारिकाधीश को हृदय से लगाकर कहा - गोविन्द ! जिस पतिहीना अबला माता ने हमें शैशव से सब संकट सहकर पालन किया, जो निरन्तर उपवास और तप में लगी रहकर हमारे कुशलक्षेम का ही प्रयत्न करती रहती हैं, जिनका देवता और अतिथियों में सहज अनुराग है उनसे आप कुशल पूछें। उन्हें हमारा शोक सदा संतप्त बनाये रहता है। हमारे नाम लेकर हमारी ओर से आप उनके चरणों में प्रणाम कर लें। मधुसूदन ! क्या कभी ऐसा समय आयेगा कि हम दु:ख से छूटकर अपनी दु:खिया माता को कुछ सुख पहुँचा सकेंगे।' युधिष्ठिर ने कठिनाई से प्रस्थान के इस मंगल अवसर पर अपने अश्रु, रोके। उन्होंने प्रंसगान्तर किया - 'राजा धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण तथा कृप, अश्वत्थामा, बाह्लीक, सोमदत्त एवं दूसरे भी जो हमसे वयोवृद्ध सम्मान्य राजा हैं उन्हें हमारा अभिवादन कहें, कौरवों तथा अन्यों से भी यथायोग्य कुशल पूछें। मेरा प्रणाम कहें महामति विदुरजी को।' इतना कहकर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की परिक्रमा की। उनकी अनुमति लेकर लौटे। अब साथ-साथ चलते हुए अर्जुन ने कहा - 'पहिले हम लोगों के लौटने पर हमारा राज्य लौटा देने की बात हुई थी। इसे सब राजा लोग जानते हैं। अब यदि दुर्योधन ऐसा करने को प्रस्तुत हो जाता है तो सर्वोत्तम, उसे बहुत बड़ी विपत्ति से परित्राण हो जायेगा अन्यथा मैं उसके सब सहायकों का समर में संहार कर दूँगा।' अर्जुन के वचन सुनकर भीमसेन हर्ष विभोर होकर सिंहनाद करने लगे। श्रीकृष्ण को आलिंगन करके, उनकी अनुमति लेकर अर्जुन, भीमसेन आदि भी लौट गये। इनके चले जाने पर दारुक ने अश्वों को पूरे वेग से हाँका मार्ग के दोनों ओर खड़े अनेक महर्षिगण आगे मिले, देखते ही रथ रोक लिया गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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