पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
57. अर्जुन का स्वप्न
श्रीकृष्ण अपने शिविर में उस रात्रि के तृतीय प्रहर में ध्यानस्थ बैठे थे। उन सच्चिदाननन्दघन में स्थूल, सूक्ष्म, कारण इन तीन शरीरों का भेद नहीं है और न अन्त:करण है, किन्तु उन अचिन्त्य अच्युत का वर्णन तो हम अपने ही समान करने को विवश हैं। अपने समान सोचे, बोले बिना समझने का हमारे समीप दूसरा उपाय ही नहीं है। अत: इस अपूर्ण अपनी ही भाषा में कहना पड़ेगा। श्रीकृष्ण ध्यानस्थ थे। उनका संकल्प सक्रिय था। अर्जुन अपने शिविर में अपने सखा के द्वारा बिछाये गये कुशों के आस्तरण पर सोये-सोये स्वप्न देखने लगे। स्वप्न सूक्ष्म शरीर में ही दीखता है, अत: कह सकते हैं कि अर्जुन का स्थूल शरीर सोया पड़ रहा और उनके सूक्ष्म शरीर को साथ लेकर श्रीकृष्ण ने यात्रा प्रारम्भ कर दी। वैसे अर्जुन ने प्रात: जागकर सबसे यही कहा कि उन्होंने रात्रि में अद्भुत स्वप्न देखा है। अर्जुन ने अपने स्वप्न का जो वर्णन किया, वही देना है। अर्जुन वनवासकाल में भगवान व्यास द्वारा उपदिष्ट शिवमन्त्र का मानसिक जप करते-करते सो गये थे। स्वप्न में ही उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण सचिन्त मुख किये उनके समीप आये हैं; स्वप्न में अर्जुन ने उठकर उनका स्वागत किया। उन्हें आसन दिया। श्रीकृष्ण बैठ गये और अर्जुन हाथ जोड़े खड़े रहे। श्रीकृष्ण ने कहा- विजय ! तुम विषाद क्यों कर रहे हो शोक मत करो ! शोक तो मनुष्य का शत्रु है। जो कार्य करना है उसके लिए प्रयत्न करो। प्रबल उद्योग करो। अर्जुन सचमुच चिन्ता करते हुए सोये थे। स्वप्न में वह चिन्ता ही प्रगट हुई- ‘मैंने सिन्धुराज के वध की प्रतिज्ञा आवेश में कर ली किन्तु दुर्योधन के समीप ग्यारह अक्षौहिणी सेना युद्धारम्भ में थी। कठिनाई से उसमें अब तक एक अक्षौहिणी मारी गयी होगी। दस अक्षौहिणी सेना और द्रोण, कर्ण, कृप आदि सब महारथी कल जयद्रथ के पीछे खड़े होंगे। मैं कितना भी परिश्रम एवं पराक्रम करूँ, दिनभर में जयद्रथ तक पहुँचना तो असम्भव ही लगता है। इन दिनों सूर्यास्त भी शीघ्र होता है। प्रतिज्ञा पूर्ति न होने पर मेरे जैसा पुरुष जीवन धारण कैसे करेगा। अत: कल मुझे अपनी मृत्यु निश्चित लगती है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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