पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
29. दुर्वासा से परित्राण
दुर्योधन का पाण्डव द्वेष उसे शान्ति से सोने नहीं देता था। उसे बहुत बैचेनी थी कि पाण्डु के पुत्र वन में भी नगर निवासियों के समान आनन्द से रहते हैं। वहाँ भी युधिष्ठिर बहुत से ब्राह्मणों को भोजन कराके भोजन करते हैं। वहाँ भी उनके साथ अनेक लोग हैं। पाण्डवों को तंग करने, उनकी हानि करने, उन्हें पीड़ा पहुँचाने का दुर्योधन तथा उसके साथियों का उद्योग व्यर्थ हुआ। उलटे वन में इस प्रयत्न में ससैन्य जाकर गन्धर्वराज चित्ररथ के हाथों पराजय प्राप्त हुई। अर्जुन ने सहायता करके छुड़ाया न होता तो वह पाण्डवों का मित्र गन्धर्व तो दुर्योधन को बन्दी बना ही चुका था। शकुनि, कर्ण आदि के साथ दुर्योधन इसी कुमन्त्रणा में लगा था कि कैसे पाण्डवों को वन में नष्ट किया जाय। यह चिन्ता इसलिए भी बहुत बढ गयी थी क्योंकि वनवास के बारह वर्ष पाण्डव प्राय: पूरा कर चुके थे। इसीसमय महर्षि दुर्वासा शिष्यों के साथ अकस्मात हस्तिनापुर आ गये। परम क्रोधी दुर्वासा जी के पास दुर्योधन भाइयों के साथ गया और नम्रतापूर्वक उन्हें निमन्त्रित किया। विधिपूर्वक उनकी पूजा की और स्वयं दास की भाँति उनकी सेवा में खड़ा रहा। दुर्वासा कई दिन रुके रहे। दुर्योधन उनके शाप के भय से आलस्य छोड़कर रात-दिन उनकी सेवा में लगा रहा। महर्षि दुर्वासा का स्वभाव विचित्र था। वे भोजन माँगते और फिर कह देते – ‘भूख नहीं है।’ कभी आधी रात को आते और कभी दिन में। भोजन के लिए भी कभी कुछ माँगते, कभी कुछ और उन्हें थोड़ा विलम्ब भी सहन नहीं था। दुर्योधन ने शकुनि आदि से सलाह कर ली थी कि प्रसन्न होकर ये ऋषि वरदान देना चाहें तो क्या माँगना है। अब इनको सन्तुष्ट रखने के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं था। असन्तुष्ट होकर तो ये पता नहीं क्या शाप दे डालें किन्तु सन्तुष्ट होने पर बहुत बड़ा काम बना दे सकते थे। अन्त में वह चिर प्रतीक्षित दिन भी आया। दुर्वासा जी ने प्रसन्न होकर कहा – ‘मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो।’ दुर्योधन ने बहुत विनम्र होकर कहा – ‘हमारे कुल में सबसे बड़े युधिष्ठिर हैं। जैसे आपने मुझे अपनी सेवा का अवसर दिया है, मैं चाहता हूँ कि वैसे ही उन्हें भी सब शिष्यों के साथ आपके सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हो। मेरी एक प्रार्थना अवश्य है कि आप उनके यहाँ तब पधारें जब सबको भोजन कराके राजकुमारी द्रौपदी स्वयं भोजन कर चुकी हों और विश्राम कर रही हों।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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