पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
46. अर्जुन का व्यामोह
दोनों सेनाओं को व्यूहबद्ध देखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के समीप गया। उसने दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान वीरों का परिचय देकर कहा – ‘पाण्डवों की सेना परिमित है। यद्यपि उन्होंने आपके शिष्य धृष्टद्युम्न को प्रधान सेनापति बनाया है किन्तु अपनी सेना का संरक्षक भीमसेन को और प्रधान योद्धा अर्जुन को नियत किया है। यह रणनिति किसी एक पर पूरा दायित्व ही नहीं डालती। इससे अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है। ‘अपनी सेना अपार है और उसका पूरा दायित्व अपने प्रधान सेनापति भीष्म पर है। अमित पराक्रम पितामह अकेले ही शत्रु को पराजित करने में समर्थ हैं। अत: आप सब महारथी मिलकर अपना पूरा ध्यान भीष्म की रक्षा पर ही रखें।’ दुर्योधन को उत्साहित करने के लिए पितामह भीष्म ने उच्च स्वर से सिंह गर्जन किया और शंख ध्वनि करने लगे। प्रधान सेनापति का शंख बजाना युद्धारम्भ के लिए सावधान होने का संकेत था। अत: दूसरे कौरव पक्ष के महारथियों ने भी अधरों से शंख लगा लिये। नगाड़े, भेरी, शृंगे आदि सभी रणवाद्य एक साथ बजने लगे। इसी समय श्वेत अश्वों से जुता कपिध्वज नन्दिघोष रथ आगे आया और श्रीकृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य तथा अर्जुन ने देवदत्त शंख ओष्ठों से लगाया। राजा युधिष्ठिर का अनन्त विजय, भीमसेन का भयानक शब्द करने वाला पौण्ड्रक तथा नकुल सहदेव के सुघोष एवं मणिपुष्पक शंख भी निनादित होने लगे। पाण्डव पक्ष के महारथियों ने भी अपने शंखनाद से दिशाएँ गुंजा दीं। भेरियाँ, दुन्दुभियाँ भी बजने लगीं। यह शब्द इतना प्रचण्ड था कि कौरव पक्ष से उठता शब्द इससे दब गया। बहुत से कौरव पक्ष के सैनिक इसे अपने विपक्ष में अपशकुन मानकर भयभीत हो गये। इसी समय अर्जुन ने श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा – ‘अच्युत ! मैं देखना चाहता हूँ कि दुबुद्धि धृतराष्ट्र के पुत्रों का प्रिय करने की इच्छा से कौन-कौन इस युद्ध में उनकी सहायता करने आये हैं। अत: मेरा रथ दोनों सेनाओं के मध्य ले चलें।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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