पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
51. पुनः प्रण-भंग
नवम दिन के प्रातःकाल भीष्म ने अपनी विशाल वाहिनी का सर्वतोभद्र व्यूह बनाया। पाण्डवों के लिए उनका क्रौंञ्च व्यूह वरदान सिद्ध हो रहा था। इस दिन भी तृतीय प्रहर तक पाण्डव पक्ष प्रबल ही रहा। चतुर्थ प्रहर प्रारम्भ होते ही पितामह भीष्म क्रोध में भरकर प्रचण्ड हो उठे। यद्यपि पाण्डव वीरों ने उन्हें घेर लिया था किन्तु वे दावाग्नि के समान प्रतिपक्ष को भस्म कर रहे थे। उनके सम्मुख जाकर चेदि और करुष देश के चौदह सहस्र महारथी पर लोक चले गये। इससे पाण्डव सेना आर्तनाद करती भागने लगी। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ललकारा- 'मोहग्रस्त मत बनो। भीष्म पर प्रहार करो। तुमने भीष्म, द्रोणादि को उनके अनुयायियों सहित मार देने का अपने पक्ष को आश्वासन दिया है। क्षात्र धर्म का विचार करके पूरी शक्ति से संग्राम करो।' अर्जुन ने अनिच्छापूर्वक कहा- 'अच्छा, पितामह सम्मुख मेरा रथ पहुँचाइये। मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।' अर्जुन का कपिध्वज रथ भीष्म के सामने पहुँच रहा है, यह देखकर पाण्डव पक्ष की भागती सेना लौट पड़ी। भीष्म ने वाणों की झड़ी लगाकर अर्जुन के रथ को आच्छादित कर दिया किंतु श्रीकृष्ण ने अपने अद्भुत अश्व चालन कौशल से रथ को उस शर-पंजर से निकाल लिया। अर्जुन में पितामह भीष्म पर आघात करने का उत्साह नहीं था। वे केवल भीष्म का प्रतिकार कर रहे थे और उनके वेग को कम करने को प्रयत्न कर रहे थे। उन्होंने भीष्म का धनुष काट दिया। उन्होंने दूसरा धनुष उठाया तो उसे भी काट दिया। भीष्म ने अर्जुन के इस पौरुष की प्रशंसा की। अर्जुन अवसर पाकर भी भीष्म पर प्रहार नहीं कर रहे थे और भीष्म अर्जुन को व्यस्त रखकर भी पाण्डव सेना के वीरोंको चुन-चुनकर मारते चले जा रहे थे। वे इस समय प्रलयंकर बने हुए थे। यह श्रीकृष्ण सहन नहीं कर सके उन्होंने रथ-रश्मि छोड़ दी और कशा (चाबुक) ही लिये सिंह के समान गर्जना करते पैदल ही भीष्म की और दौड़े। मूयर मुकुट लहरा रहा था। पीतपट उड़ने लगा था। बार-बार हुंकार करते, कुटिल भृकुटि, अरुण नेत्र पुरुषोत्तम ऐसे भीष्म पर टूटे थे मानो सिंह मदमत्त गजराजपर टूट पड़ा हो। पृथ्वी उनके पदाघात से मानो विदीर्ण हो जायगी। जिनके भ्रूभंग मात्र से कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड प्रलय के गर्भ में विलीन हो जाते हैं, उन सर्वलोकेश्वरेश्वर के करों में चक्र है या चाबुक, इसका कोई अर्थ नहीं था। वे क्रुद्ध हैं तो उनके सम्मुख जाने का साहस करते ही महाकाल भी सत्ताशून्य हो जायगा, सुर-असुर, दैत्य, गन्धर्वों की गणना क्या और मनुष्य तो बहुत अल्पप्राण है। कौरव सेना में मरने की इतनी शीघ्रता किसी को नहीं थी। बार-बार दुर्योधन ने अपने प्रधान शूरों को सावधान किया था कि सब मिलकर भीष्म की रक्षा करें। आज प्रातःकाल यह बात विशेष रूप से कही थी किन्तु दूसरे तो दूर दुर्योधन में भी आगे आने का साहस नहीं था। सम्पूर्ण कौरव पक्ष के लोग सामान्य सैनिक से लेकर आचार्य द्रोण तक शस्त्र त्यागकर दोनों हाथ उठाकर चिल्ला रहे थे- 'भीष्म मारे गये ! 'भीष्म मारे गये।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज