पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
51. पुनः प्रण-भंग
'भीष्म को बचाओ।' यह पुकार किसी एक कण्ठ से भी नहीं निकल सकी। आतंक के कारण सब कांपने लगे थे। श्रीकृष्ण भले शस्त्रहीन हैं, उन क्रुद्ध सर्वशक्तिमान का सामना भी किया जा सकता है- यह सोचने का साहस करना स्वयं अपनी मृत्यु को निमंत्रण देना था। सब कौरव पक्ष के वीरों के हृदय सुन्न से हो गये थे। वे उस समय भागने की शक्ति भी खो चुके थे। भीष्म ने अपना विशाल धनुष उठा रखा था और उसका जयघोष इस प्रकार कर रहे थे मानो वह भी कोई वाद्य हो। वे पुकार रहे थे- 'आओ केशव ! जनार्दन पधारो। कैटभारि, मुझे मारकर आज कृतार्थ कर दो। आपने आक्रमण करके मुझे त्रिभुवन में गौरवशाली बना दिया। अब अपने हाथ से मारकर मुझे जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त कर दो पुरुषोत्तम ! अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर आप भक्तवत्सल ने आज पुनः मेरी प्रण-रक्षा की। मैंने बहुत धृष्टता की है। मुझे दण्ड दीजिये। आइये ! आइये मधुसूदन ! पधारिये और मुझे मारकर अपने श्रीचरणों में स्थान दीजिये। मैं तो आपका दास हूँ, इच्छानुसार मुझ पर प्रहार कीजिये।' श्रीकृष्ण के रथ से कूदते ही अर्जुन चौंके। गाण्डीव रथ में ही फेंककर वे भी कूदे और दौड़कर पीछे से उन्होंने अपने सखा को भुजाओं में भर लिया। इतने पर भी श्रीकृष्ण रोके नहीं जा सके। वे अर्जुन को घसीटते हुए बढ़े जा रहे थे। अर्जुन ने आगे आकर चरण पकड़े और बहुत दीनतापूर्वक बोले- 'आप लौटिये ! युद्ध न करने के अपने प्रण की रक्षा कीजिये। मैं बहुत ही लज्जित हूँ। मेरे दोष से आपको अपना प्रण-भंग करने को बाध्य होना पड़ा। अब मैं शस्त्रों की तथा सत्य की शपथ करके कहता हूँ कि पूरी शक्ति से युद्ध करूँगा। युद्ध का भार मुझ पर ही रहने दीजिए।' श्रीकृष्ण एक शब्द भी बोले नहीं। वे वैसे ही क्रोध में भरे लौटे और आकर रथ पर बैठ गये। उन्हें अर्जुन का शैथिल्य अच्छा नहीं लगा था। और अब भी अर्जुन अपनी शपथ पर स्थिर रह सकेगा, इसका भरोसा नहीं था। युद्ध में जय-पराजय पाण्डवों की ही होने वाली थी किन्तु श्रीकृष्ण का स्वभाव है कि जिसे अपना स्वीकार कर लेते हैं, उसका हित उनका अपना हित हो जाता है और उसकी चिन्ता वे उससे अधिक करने लगते हैं वह प्रमाद करे, उदासीन हो जाय किन्तु श्रीकृष्ण न उदासीन होेते, न प्रमाद करते। वे आश्रितजनपाल कृपालु तो सदा आश्रित के श्रेय के लिए सावधान ही रहते हैं। भीष्म पितामह ने फिर बाण वर्षा प्रारम्भ कर दी। अद्भुत भक्त भीष्म। धनुष ही उनका सर्वस्व। उनके लिए शराघात ही आराध्य का अर्चन था। वे पूरी शक्ति से श्रीकृष्ण तथा अर्जुन पर शर वर्षा करने में तत्काल जुट गये। यह तो उनके हृदय में पूजा थी। पाण्डवों के दल में फिर भगदड़ पड़ गयी। भीष्म के बाण आज मृत्यु का संदेश लिये आते थे। शत सहस्र सैनिक प्रतिक्षण समर की गोद में सदा को सोते जा रहे थे। ग्रीष्म के प्रचण्ड मार्तण्ड के समान भीष्म का तेज असह्य था। आज वे अमानवीय पराक्रम प्रकट कर रहे थे। पाण्डव सेना को आज कहीं कोई अपना रक्षक नहीं दीखता था। ऐसे समय में सूर्यास्त का हो जाना पाण्डवों के लिए वरदान सिद्ध हुआ। युद्ध विराम का शंखघोष स्वयं युधिष्ठिर ने सर्वप्रथम उस दिन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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