पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. द्रौपदी भीष्म-शिविर में
द्रौपदी ने अब अनुमान कर लिया कि उसके ये लीलामय साथी उसे यहाँ तक किसी अभिप्रायसे ही ले आये हैं। वह शिविर की ओर बढ़ी तो श्रीकृष्ण ने उसे सावधान किया- 'पितामह इस समय ध्यान करते बैठ होंगे। तुम इतनी सावधानी रखना कि प्रणाम करते समय तुम्हारे आभूषणों की झंकार अवश्य हो। इससे उन्हें पता लग जायगा कि कोई नारी प्रणाम कर रही है।' द्रौपदी शिविर में भीतर चली गयी। श्रीकृष्ण द्वार के समीप ही छिपे खड़े रहे। पांचाली ने प्रणाम करते समय शरीर हिलाकर आभूषण झंकृत कर दिये। नेत्र बन्द करके ध्यानस्थ पितामह को लगा कि कलके युद्ध में सम्मिलित होने वाले किसी शूर की पत्नी उनसे आशीर्वाद लेने आयी है। उन्होंने कह दिया- 'पुत्री ! सौभाग्यवती भव !' अब द्रौपदी बोल उठी- 'पितामह ! जिसके सौभाग्य को कल ही समाप्त कर देने की आपने प्रतिज्ञा कर ली है उसे आपका यह आशीर्वाद सत्य कैसे होगा?' भीष्म ने चैंककर नेत्र खोल दिये- 'याज्ञसेनि तुम ? तुम इस रात्रि में यहाँ कैसे ? तुम्हें लाने वाला कहाँ है ? बेटी ! वह छलिया जिसकी रक्षा करने वाला है, उसे कौन मार सकता है। भीष्म की प्रतिज्ञा का क्या अर्थ उसका आशीर्वाद ही सत्य होने वाला है किन्तु मुझे उसके दर्शन करा दो ! भीष्म उठकर लगभग दौड़ते हुए शिविर के बाहर आये और श्रीकृष्ण के चरणों पर गिर पड़े- 'भक्तवत्सल ! मैं आपको ही पुकार रहा था और आप इस रात्रि में यहाँ ! भीष्म इतना अधम है कि उसके शिविर-द्वारपर आपको प्रतिज्ञा करनी पड़ी।' श्रीकृष्ण को लेकर पितामह भीतर आये। उनकी पूजा की, स्तुति की। उनसे अनुमति लेकर श्रीकृष्णचन्द्र द्रौपदी के साथ चलने लगे तो भीष्म ने वे पांच बाण पांचाली को देकर कहा- 'पुत्री ! इन्हें ले जा। अब ये व्यर्थ होकर भी सफल हो गये। पुरुषोत्तम पाण्डवों की रक्षा में इतने सतर्क होकर भीष्म पर भी अपना वात्सल्य ही प्रकट करते हैं।' श्रीकृष्णचन्द्र पाण्डव शिविर में लौटे तो सबको मानों प्राणदान मिला। द्रौपदी उसी समय रथ में बैठकर उपप्लव्य शिविर में सब स्त्रियों को आश्वस्त करने चली गयी। सूर्याेदय से पर्याप्त पहिले ही यह सब करके श्रीकृष्ण सुप्रसन्न अपने शिविर में विश्राम करने लगे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज